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________________ 222 : प्राकृत व्याकरण के, भविष्यत्काल के, आज्ञार्थक और विधिअर्थक प्रथम-द्वितीय-तृतीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर समान रूप से प्राकृत में 'हसेज्ज तथा हसेज्जा' रूप होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से प्राकृत में प्राप्त मूल हलन्त धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति, ३-१५९ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१७८ से तथा ३-१७७ से प्राप्तांग 'हसे में सभी प्रकार के लकारों के अर्थ में तीनों पुरुषों के दोनों वचनों में प्राप्त सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर 'ज्ज तथा ज्जा प्रत्ययों की क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति होकर 'हसेज्ज तथा हसेज्जा' रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ त्वरते, त्वरसे, त्वरे, त्वरिष्यते, त्वरिष्यसे, त्वरिष्ये, त्वरताम्, त्वरस्व, त्वरै, त्वरते, त्वरेथाः और त्वरेय (आदि) रूप संस्कृत के क्रम से वर्तमानकाल के, भविष्यत्काल के, आज्ञार्थक और विधि लिंग के प्रथम-द्वितीय-तृतीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक आत्मनेपदी क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर तथा अन्य लकारों के अर्थ में उपलब्ध अन्य सभी रूपों के स्थान पर भी प्राकृत में समान रूप से तुवरेज्ज तथा तुवरेज्जा रूप होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-१७० से मूल संस्कृत-धातु 'त्वर' के स्थान पर प्राकृत में 'तुवर्' की आदेश प्राप्ति; ४-२३९ से आदेश प्राप्ति हलन्त धातु 'तुवर्' में विकरण-प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५९ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१७८ से तथा ३-१७७ से प्राप्तांग 'तवरे में सभी प्रकार के लकारों के अर्थ में तीनों परुषों के दोनों वचनों के प्राप्त सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति होकर तुवरेज्ज तथा तुवरेज्जा रूप सिद्ध हो जाते हैं।।३-१७८।।। क्रियातिपत्तेः।। ३-१७९।। क्रियातिपत्तेः स्थाने ज्ज ज्जा वादेशौ भवतः।। होज्जा होज्जा। अभविष्यदित्यर्थः। जइ होज्ज वण्णणिज्जो।। अर्थः- 'हेतु-हेतुमद्भाव' के अर्थ में क्रियातिपत्ति लकार का प्रयोग हुआ करता है। इसको संस्कृत में लङ्लकार कहते हैं। जब किसी होने वाली क्रिया का किसी दूसरी क्रिया के नहीं होने पर नहीं होना पाया जाय; तब इस क्रियातिपत्ति अर्थक लुङ्लकार का प्रयोग किया जाता है। जैसे:- सुवृष्टिः अभविष्यत् तदा सुभिक्षम् अभविष्यत् यदि अच्छी वृष्टि हुई होती तो सुभिक्ष अर्थात् अन्न आदि की उत्पत्ति भी अच्छी हुई होती। इस उदाहरण से प्रतीत होता है कि सुभिक्ष का होना अथवा नहीं होना वष्टि के होने पर अथवा नहीं होने पर निर्भर करता है: यों'वष्टि' कारण रूप होती हई 'सभिक्ष फल रूप होता है;इसीलिये यह लकार हेतुमत् भाव रूप कहा जाता है। इसीका अपर-नाम क्रियातिपत्ति भी है। यही संस्कृत का लुङ् लकार है; जो कि अंग्रेजी में-(Conditonal Mood) कहलाता है। क्रियातिपत्ति की रचना में यह विशेषता होती है कि 'कारण एवं कार्य रूप से अवस्थित तथा 'ऐसा होता तो ऐसा हो जाता' यों शर्त रूप से रहे हुए दो वाक्यों का एक संयुक्त वाक्य बन जाता है। इसमें प्रदर्शित की जाने वाली दोनों क्रियाओं का किसी भी प्रतिकूल सामग्री से 'अभाव जैसी स्थिति' का रूप दिखलाई पड़ता है। इस लकार को हिन्दी में 'हेतु-हेतुमद् भूतकाल' कहते हैं। तथा गुजराती-भाषा में यह 'संकेत-भूतकाल' नाम से भी बोला जाता है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- जइ मेहो होज्ज, तया तणं होज्जा=यदि जल वर्षा हुई होती तो घास हुआ होता। इस उदाहरण से विदित होता है कि पूर्व वाक्यांश- कारण रूप है और उत्तर वाक्यांश कार्य रूप अथवा फल रूप है। यों हेतु हेतुमतभाव (Cause and effect) के अर्थ में क्रियातिपति का प्रयोग होता है। प्राकृत भाषा में धातुओं के प्राप्तांगों में ज्ज अथवा ज्जा' प्रत्ययों की संयोजना कर देने से उन धातुओं का रूप क्रियातिपत्ति नामक लकार के अर्थ में तैयार हो जाता है। यों संस्कृत भाषा में क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्तप्य प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल 'ज्ज अथवा ज्जा' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- अभविष्यत्, अभविष्यन्, अभविष्यः, अभविष्यत, अभविष्यम् और अभविष्याम होज्ज तथा होज्जा-वह हुआ होता, वे हुए होते' तू हुआ होता, तुम हुए होते, मैं हुआ होता और हम हुए होते। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- यदि अभविष्यत् वर्णनीयः जई होज्ज वण्णणिजो-यदि वर्णन योग्य हुआ होता (वाक्य अधूरा है); इस प्रकार से 'कारण कार्यात्मक क्रियातिपत्ति का स्वरूप समझ लेना चाहिये। कोई-कोई आचार्य कहते हैं कि इसका प्रयोग भूतकाल के समान ही भविष्यत्काल के अर्थ में भी हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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