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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 221 पंचम रूप 'होहिइ' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६६ में की गई है।
भविष्यसि संस्कृत के भविष्यत्काल के द्वितीय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत-रूपांतर होज्जहिसि, होज्जाहिसि, होज्ज, होज्जा और होहिसि होते हैं। इनमें से प्रथम और द्वितीय रूपों में उपर्युक्त रीति से प्राप्तांग 'हो' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की (विकरण-रूप) वैकल्पिक-प्राप्ति; ३-१६६ से प्राप्तांग 'होज्ज तथा होज्जा' में भविष्यत्कालवाचक-अर्थ में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-१४० से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राकृत में क्रम से प्राप्तांग 'होज्जहि तथा होज्जाहि' में द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'होज्जहिसि तथा होज्जाहिसि' सिद्ध हो जाते हैं।
तृतीय और चतुर्थ रूप 'होज्ज तथा होज्जा' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से तथा ३-१७७ से (उपरोक्त रीति से) प्राप्तांग 'हो' में भविष्यत्-काल-वाचक रूप से प्राप्तव्य द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ वाले प्रत्ययों के स्थान पर क्रम से 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों को वैकल्पिक रूप से आदेश-प्राप्ति होकर 'होज्ज तथा होज्जा' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
पञ्चम रूप 'होहिसि' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६६ में की गई है;
भविष्यामि संस्कृत के भविष्यत्काल के तृतीय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत-रूपान्तर क्रम से होज्जहिमि, होज्जाहिसि, होज्जस्सासि, होज्जहामि, होज्जस्सं, होज्ज और होज्जा होते हैं; इनमें से प्रथम पांच रूपों में उपरोक्त रीति से प्राप्तांग 'हो' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की (विकरण रूप से) क्रम से वैकल्पिक-प्राप्ति; तत्पश्चात् क्रम से प्राप्तांग 'होज्ज तथा होज्जा' में सूत्र-संख्या ३-१६६ से तथा ३-१६७ से भविष्यत् काल-वाचक अर्थ में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि, स्सा, हा' की क्रम से प्रथम द्वितीय रूपों में तथा तृतीय-चतुर्थ रूपों में प्राप्ति; यों क्रम से भविष्यत्-काल-वाचक अर्थ में क्रम से प्राप्तांग प्रथम-द्वितीय-तृतीय और चतुर्थ रूप 'होज्जहि, होज्जहि, होज्जाहि, होज्जस्सा और होज्जहा' में सूत्र-संख्या ३-१४१ से तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'मि' प्रत्यय
की प्राप्ति होकर 'होज्जहिमि, होज्जाहिमि, होज्जस्सामि और होज्जहामि रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___पंचम रूप 'होज्जस्सं' में 'होज्ज' अङ्ग की प्राप्ति उपर्युक्त रीति से होकर सूत्र-संख्या ३-१६९ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्तांग 'होज्ज' में तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' के स्थान पर 'स्सं प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर 'होज्जस्सं रूप सिद्ध हो जाता है।
छट्टे और सातवें रूप 'होज्ज तथा होज्जा' में 'हो' अङ्ग की उपर्युक्त रीति से प्राप्ति होकर तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१७८ से तथा ३-१७७ से भविष्यत-काल के अर्थ में प्राप्त सभी प्रकार के प्राकृत प्रत्ययों के स्थान पर केवल 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की ही क्रम से प्राप्ति होकर 'होज्ज तथा होज्जा' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
भवतु तथा भवेत् संस्कृत के क्रम से आज्ञार्थक, तथा विधि लिङ् के प्रथमपुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप समान रूप से यहाँ पर पाँच दिये गये हैं; होज्जउ, होज्जाउ, होज्ज, होज्जा तथा होउ। इनमें धातु-अंग रूप 'हो' की प्राप्ति उपर्युक्त रीति-अनुसार; तत्पश्चात्-प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या ३-१७८ से 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की (विकरण रूप से) वैकल्पिक प्राप्ति और ३-१७३ से क्रम से प्राप्तांग 'होज्ज तथा होज्जा' में लोट् लकार के तथा लिङ्लकार के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राकृत में 'उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'होज्जउ तथा होज्जाउ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
तृतीय और चतुर्थ रूपों में प्राप्तांग 'हो' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से तथा ३-१७७ से लोट्लकार के और लिङ्लकार के अर्थ में प्राप्त सभी प्रकार के पुरुष बोधक प्रत्ययों के स्थान पर क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से केवल 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की ही आदेश प्राप्ति होकर 'होज्ज तथा होज्जा' रूप भी सिद्ध हो जाते हैं।।
पंचम रूप 'होउ' में उपर्युक्त रीति से 'हो' अंग की प्राप्ति होने के पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१७३ से लोट्लकार के तथा विधि-लिङ् प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'होउ' रूप भी सिद्ध हो जाता है।
हसति, हससि, हसामि, हसिष्यति, हसिष्यसि, हसिष्यामि, हसतु, और हसेत् आदि संस्कृत के क्रम से वर्तमानकाल
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