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220 : प्राकृत व्याकरण आगम-रूप से 'ज्ज अथवा ज्जा' की प्राप्ति नहीं होती है; इसलिये उन धातुओं की ऐसी विशेष स्थिति का प्रदर्शन कराने के लिये ही मूल-सूत्र में 'स्वरान्त' पद की संयोजना की गई है, किन्तु ऐसी स्थित में भी यह बात ध्यान में रहे कि व्यंजनान्त अंग और प्रत्ययों के मध्य में ज्ज अथवा ज्जा' का आगम नहीं होने पर भी लकार-बोधक प्राप्त प्रत्ययों के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ज्ज अथवा ज्जा' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति तो होती है। जैसे:- हसति, हससि, हसामि, हसिष्यति, हसिष्यसि, हसिष्यामि, हसतु और हसेत् हसेज्ज अथवा हसेज्जा वह हँसता है, तू हँसता है; मैं हँसता हूं, वह हँसेगा, तू हँसेगा, मैं हँसूगा; वह हँसे और वह हँसता रहे। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- त्वरते, त्वरसे, त्वरे, त्वरिष्यते, त्वरिष्यसे, त्वरिष्ये, त्वरताम्, त्वरस्व, त्वरै, त्वरेत, त्वरेथाः और त्वरेय-तुवरेज्ज और तुवरेज्जा-वह शीघ्रता करता है, तू शीघ्रता करता है, मैं शीघ्रता करता हूँ, वह शीघ्रता करेगा, तू शीघ्रता करेगा, मैं शीघ्रता करूँगा; वह शीघ्रता करे, तू शीघ्रता कर, मैं शीघ्रता करूँ, वह शीघ्रता करता रहे, तू शीघ्रता करता रह और मैं शीघ्रता करता रहूं। इन 'ज्ज और ज्जा' प्रत्ययों के सम्बन्ध में विस्तार -पूर्वक सूत्र-संख्या ३-१७७ में बतलाया गया है; अतः विशेष-विवरण की यहाँ पर आवश्यकता नहीं रह जाती है। __ भवति संस्कृत के वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत-रूपान्तर होज्जइ, होज्जाइ होज्ज, होज्जा और होइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-धातु भू=भव् के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम और द्वितीय रूपों में सूत्र-संख्या ३-१७८ से प्राप्तांग 'हो' में 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की (विकरण रूप से) वैकल्पिक-प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्तांग 'होज्ज तथा होज्जा' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होज्ज तथा होज्जाइ रूप सिद्ध हो जाते हैं।
तृतीय और चतुर्थ रूपों में उपर्युक्त रीति से प्राप्तांग 'हो' में सूत्र-संख्या ३-१७८ तथा ३-१७७ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'ज्ज और ज्जा' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर तृतीय और चतुर्थ रूप होज्ज तथा होज्जा' भी सिद्ध हो जाते हैं। पंचम रूप होई की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९ में की गई है।
भवसि संस्कृत के वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत-रूपांतर होज्जसि, होज्जासि, होज्ज, होज्जा और होसि होते हैं। इनमें से प्रथम और द्वितीय रूपों में उपर्युक्त रीति से प्राप्तांग 'हो' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की (विकरण-रूप से) वैकल्पिक प्राप्ति और ३-१४० से प्राप्तांग 'होज्ज तथा होज्जा' में वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के समान ही प्राकृत में भी सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होज्जासि रूप सिद्ध हो जाता है। ___ तृतीय और चतुर्थ रूपों में उपर्युक्त रीति से प्राप्तांग 'हो' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से तथा ३-१७७ से वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'ज्ज' और ज्जा' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर तृतीय तथा चतुर्थ रूप होज्ज और होज्जा' भी सिद्ध हो जाते हैं।
पंचम रूप 'होसि' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१४५ में की गई है।
भविष्यति संस्कृत के भविष्यत्काल के प्रथमपुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूपान्तर होज्जहिइ, होज्जाहिइ, होज्ज, होज्जा और होहिइ होते हैं। इनमें से प्रथम और द्वितीय रूपों में उपर्युक्त रीति से प्राप्तांग 'हो' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से 'ज्ज अथवा ज्जा' प्रत्ययों की (विकरण रूप से) वैकल्पिक प्राप्ति; ३-१६६ से प्राप्तांग 'होज्ज तथा होज्जा' में भविष्यत्कालवाचक अर्थ में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-१३९ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राकृत में क्रम से प्राप्तांग 'होज्जहि तथा होज्जाहि' में प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होज्जहिइ और होज्जाहिइ रूप सिद्ध हो जाते हैं।
तृतीय और चतुर्थ रूप 'होज्ज तथा होज्जा' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से तथा ३-१७७ से प्राप्तांग 'हो' में भविष्यत्कालवाचक प्राकृत प्रत्ययों के स्थान पर क्रम से 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की वैकल्पिक रूप से भविष्यत्कालवाचक अर्थ में आदेश
प्राप्ति होकर 'होज्ज तथा होज्जा' रूप भी सिद्ध हो जाते हैं। Jain Education International
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