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28 : प्राकृत व्याकरण एषु सत्सु पूर्वस्वरस्य दीर्घत्वं विधीयते इत्यर्थः।। {। जाइँ वयणाइँ अम्हे। इं। उम्मीलन्ति पङ्कयाई चिट्ठन्ति पेच्छ वा। दहीइं हुन्ति जेम वा। महुई मुञ्च वा। णि। फुल्लन्ति पङ्कयाणि गेण्ह वा। हुन्ति दहीणि जेम वा। एवं महूणि।। क्लीब इत्येव। वच्छा वच्छे।। जस्-शस् इति किम्। सुहं।।
अर्थः- प्राकृत भाषा के अकारान्त, इकारान्त और उकारान्त नपुसंकलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में क्रम से अनुनासिक सहित 'ई' प्रत्यय अनुस्वार सहित 'इं 'प्रत्यय और 'णि' प्रत्यय की आदेश-प्राप्त होती है। क्रम से प्राप्त होने वाले इन 'इँ, इं, णि' प्रत्ययों के पूर्वस्थ शब्दान्त्य हस्व स्वर को नियमित रूप से 'दीर्घत्व' की प्राप्ति होती है। अर्थात् शब्दान्त्य स्वर को दीर्घ करने के पश्चात् ही इन प्राप्त होने वाले प्रत्ययों 'इँ, ई, णि' में से कोई सा भी एक प्रत्यय संयोजित कर दिया जाता है और ऐसा कर देने पर प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का अर्थ प्रकट हो जाता है। जैसे:- 'का उदाहरणः- यानि वचनानि अस्माकम् जाइँ वयणाइँ अम्हे अर्थात् (प्रथमा में) हमारे जो वचन है अथवा (द्वितीया में) हमारे जिन वचनों को। 'ई' का उदाहरणः-उन्मीलन्ति पङ्कजानि-उम्मीलन्ति पङ्कयाइं अर्थात् कमल खिलते हैं; पङ्कजानि तिष्ठन्ति पङ्कयाइं चिटन्ति अर्थात् कमल विद्यमान हैं। पङ्कजानि पश्य-पङ्कयाइं पेच्छ अर्थात् कमलों को देखो। दधीनि भवन्ति (अथवा सन्ति)-दहीइं हुन्ति अर्थात् दही है। दधीनि भुक्त-दहीइं जेम अर्थात् दही को खाओ। मधूनि मुञ्च अर्थात् शहद को छोड़ दो- (रहने दो-मत खाओ)। "णि' का उदाहरणः- फुल्लन्ति पङ्कजानि-फुल्लन्ति पङ्कयाणि अर्थात् कमल खिलते हैं। पङ्कजानि गृहाण पडूयाणि गेण्ह अर्थात् कमलों को ग्रहण करो। दधीनि भवन्ति-दहीणि हुन्ति अर्थात् दही है। दधीनि भुज-दहीणि जेम अर्थात् दही को खाओ। मधूनि भुक्त-महूणि जेग अर्थात् शहद को खाओ इन उदाहरणों में क्रम से 'इँ, इं और णि' प्रत्ययों का प्रयोग बतलाया गया है।
प्रश्नः- सूत्र की वृत्ति के प्रारम्भ में क्लीबे' अर्थात् 'नपुसंकलिंग में ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तर:- जो प्राकृत शब्द नपुसंकलिंग वाले नहीं होकर पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग वाले हैं; उन शब्दों में 'जस्'- अथवा शस्' के स्थान पर 'इँ, इं और णि' प्रत्ययों की प्राप्ति नहीं होती है अर्थात् केवल नपुसंकलिंग वाले शब्दों में ही इन 'इँ, इं और णि' प्रत्ययों की प्राप्ति हुआ करती है; यह 'अर्थ-पूर्ण-विधान' प्रस्थापित करने के लिये ही सूत्र की वृत्ति के प्रारम्भ में 'क्लीबे' शब्द का उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:- वृक्षाः वच्छा और वृक्षान्-वच्छे; ये उदाहरण क्रम से प्रथमान्त बहुवचन वाले और द्वितीयांत बहुवचन वाले हैं: किन्तु इनका लिंग पुल्लिंग है; अतएव इनमें ', इं और णि' प्रत्ययों का अभाव है। यों इनकी पारस्परिक विशेषता को जान लेना चाहिये।
प्रश्न:- सूत्र के प्रारंभ में 'जस्-शस्' ऐसे शब्दों का प्रयोग करने का क्या तात्पर्य-विशेष है?
उत्तर :- इसका यह रहस्य है कि प्राकृत भाषा के नपुसंकलिंग वाले शब्दों में 'इँ, इं और णि' प्रत्ययों की प्राप्ति प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में ही होती है; अन्य किसी भी विभक्ति के (संबोधन को छोड़कर) किसी भी वचन में इन 'इँ, इं और णि' प्रत्ययों की प्राप्ति नहीं होती है। यही तात्पर्य 'जस्-शस्' से प्रकट होता है और इसीलिये इन्हें सूत्र के प्रारम्भ में स्थान दिया गया है। जैसेः- सुख-सुह। इस उदाहरण में 'नपुसंकति
संकलिंगत्व' का सद्भाव है; परन्तु ऐसा होने पर भी इसमें प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का अभाव है और ऐसी 'अभावात्मक-स्थिति, होने से ही 'जस्-शस्' के स्थानीय प्रत्ययों का याने 'इँ, इं और णि' प्रत्ययों का भी इस उदाहरण में अभाव है। यों यह उदाहरण प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के एकवचन का है; इस प्रकार 'सुखम्-सुहं पद नपुसंकलिंग वाला है; प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति वाला है; परन्तु एकवचन वाला होने से इसमें 'इँ, इं और णि' प्रत्ययों में से किसी भी प्रत्यय की संयोजना नहीं हो सकती है। यही रहस्य पूर्ण विशेषता जस्-शस् की जानना।
यानि संस्कृत प्रथमा द्वितीयान्त के बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप जाइँ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति और ३-२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्'
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