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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 29 अथवा 'शस्' के नपुसंकलिंगात्मक स्थानीय प्रत्यय 'नि' के स्थान पर प्राकृत में 'हूँ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जाइँ रूप सिद्ध हो जाता है।
वचनानि संस्कृत प्रथमा द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप वयणाइँ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१७७ से 'च्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'च्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १ - २२८ से प्रथम 'न्' के स्थान पर 'ण्' की प्राप्ति और ३ - २६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' अथवा 'शस्' के नपुसंकलिंगात्मक स्थानीय प्रत्यय 'नि' के स्थान पर प्राकृत में शब्दान्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घ 'आ' की प्राप्ति करते हुए ‘इँ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वयणाइँ रूप सिद्ध हो जाता है।
अस्माकम् संस्कृत षष्ठ्यन्त बहुवचनात्मक सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप अम्हे होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - ११४ से संस्कृत सर्वनाम 'अस्मद्' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में 'आम्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर प्राप्त रूप 'अस्माकम्' के स्थान पर प्राकृत में ' अम्हे' रूप की आदेश प्राप्ति होकर अम्हें रूप सिद्ध हो जाता है।
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उन्मीलन्ति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप उम्मीलन्ति होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७८ से प्रथम हलन्त 'न्' व्यंजन का लोप; २-८९ से लोप हुए 'न्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'म्' को द्वित्व 'म्म' को प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'उम्मील' में स्थित अन्त्य 'लू' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल प्रथमपुरुष के बहुवचन में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप उम्मीलन्ति सिद्ध हो जाता है।
पङ्कजानि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पङ्कयाइं होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'ज्' का लोप; १ - १८० लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति; और ३- २६ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति बहुवचन में प्रत्यय 'जस्' और 'शस्' के नपुसंकलिंगात्मक स्थानीय रूप 'नि' के स्थान पर प्राकृत में 'इं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पङ्कयाईं रूप सिद्ध हो जाता है।
चिट्ठन्ति रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - २० में की गई है।
पेच्छ रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २३ में की गई है।
ही रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३- २० में की गई है।
भवन्ति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप हुन्ति होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-६१ से संस्कृत धातु 'भू- भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हु' आदेश; और ३-१४२ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप हुन्ति सिद्ध हो जाता है।
भुंक्त संस्कृत आज्ञार्थक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप जेम होता है। इसमें सूत्र संख्या ४- ११० से संस्कृत मूल धातु 'भुज्' के स्थान पर प्राकृत में 'जेम्' आदेश; ४ - २३९ से प्राप्त प्राकृत धातु 'जेम' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'म्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१७५ आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के एकवचन में प्राप्त प्राकृत प्रत्यय 'सु' का लोप होकर जेम रूप सिद्ध हो जाता है।
महुई रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - २० में की गई है।
मुञ्च संस्कृत आज्ञार्थक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप मुञ्च होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - १७५ से आज्ञार्थक कार में द्वितीय - पुरुष के एकवचन में प्राप्त प्राकृत प्रत्यय 'सु' का लोप होकर मुञ्च रूप सिद्ध होता है।
वा अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-६७ में की गई है।
से
फुल्लन्ति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप फुल्लन्ति होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४-२३९ मूल प्राकृत धातु 'फुल्ल्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'ल्ल्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप फुल्लन्ति सिद्ध हो जाता है।
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