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30 : प्राकृत व्याकरण __पङ्कजानि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पङ्कयाणि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और ३-२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' और 'शस्' के नपुंसकलिंगात्मक स्थानीय रूप 'नि' के स्थान पर प्राकृत में 'णि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पङ्कयाणि रूप सिद्ध हो जाता है।
गेण्ह रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१९७ में की गई है।
दधीनि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दहीणि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत रूप 'दधि' में स्थित 'ध्' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' आदेश और ३-२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' और 'शस्' के नपुसंकलिंगात्मक स्थानीय रूप 'नि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति कराते हुए 'णि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप दहीणि सिद्ध हो जाता है।
'हुन्ति'-रूप की सिद्धि इसी सूत्र में उपर की गई है। 'जेम'-रूप की सिद्धि इसी सूत्र में उपर की गई है।
मधूनिः- संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप महूणि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ मूल संस्कृत रूप 'मधु' में स्थित 'ध्' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' आदेश और ३-२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' और 'शस्' के नपुसंकलिंगात्मक स्थानीय रूप 'नि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति कराते हुए 'णि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप महूणि सिद्ध हो जाता है।
वच्छा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है। वच्छे रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है।
सुखम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सुहं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' स्थान पर 'ह' आदेश और ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' आदेश एवं १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सुहं रूप सिद्ध हो जाता है। अथवा सूत्र-संख्या ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्राकृत रूप सुहं सिद्ध हो जाता है ।।३-२६।।
स्त्रियामुदोतौ वा ॥३-२७।। स्त्रियां वर्तमानानाम्नः परयोर्जस्-शसोः स्थाने प्रत्येकम् उत् ओत् इत्येतौ सप्राग्दी? वा भवतः।। वचन-भेदो यथा-संख्य निवृत्त्यर्थः।। मालउ मालाओ। बुद्धीउ बुद्धीओ। सहीउ सहीओ। धेणूउ धेणूओ। वहूउ वहूओ। पक्षे। माला। बुद्धी। सही। धेणू। वहू। स्त्रियामिति किम्। वच्छा। जस्-शस इत्येव। मालाए कयं।। ____ अर्थः- प्राकृत भाषा के अकारान्त, इकारान्त, उकारान्त, ईकारान्त और ऊकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'शस' के स्थान पर-वैकल्पिक रूप से 'उत्-उ' और 'ओत-ओ' प्रत्ययों को प्राप्ति होती है। अर्थात् प्रथमा और द्वितीया विभक्ति में से प्रत्येक के बहुवचन में क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से 'उ' और 'ओ' ऐसे दो-दो प्रत्ययों की प्राप्ति होती है। साथ में यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि इन 'उ' अथवा 'ओ' प्रत्ययों की प्राप्ति के पूर्व शब्दान्त्य हस्व स्वर को दीर्घ-स्वर की प्राप्ति हो जाती है। अर्थात् हस्व इकारान्त को दीर्घ ईकारान्त की प्राप्ति होती है एवं हस्व उकारान्त दीर्घ ऊकारान्त में परिणत हो जाता है। वृत्ति में प्रत्येकम्' शब्द को लिखने का यह तात्पर्य है कि स्त्रीलिंग वाले सभी शब्दों में और प्रथमा द्वितीया के बहुवचन में-(दोनों विभक्तियों में) उ' और 'ओ' प्रत्ययों की क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होती है। जैसे:-आकारान्त स्त्रीलिंग का उदाहरणः-मालाः मालाउ और मालाओ; इकारान्त स्त्रीलिंग का उदाहरणः-बुद्धयः और बुद्धी: बुद्धीउ और बुद्धीओ; ईकारान्त स्त्रीलिंग का उदाहरणः-सख्यः और सखी:-सहीउ और सहीओ; उकारान्त स्त्रीलिंग का उदाहरणः-धेनवः और
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