SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 31 धेनू:- धेणूड और धेणूओ; एवं ऊकारान्त स्त्रीलिंग का उदाहरण:- वध्वः और वधूः = वहूर और वहूओ । वैकल्पिक पक्ष होने से इन्हीं उदाहरणों में क्रम से एक-एक रूप इस प्रकार भी होता है :- माला, बुद्धी, सही, धेणू और वहू। ये रूप प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के जानना; यों स्त्रीलिंग वाले शब्दों में प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में रूपों की समानता तथा एकरूपता है। प्रश्न:- सूत्र के प्रारंभ में 'स्त्रियाम्' अर्थात् स्त्रीलिंग वाले शब्दों में ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तरः- जो प्राकृत शब्द स्त्रीलिंग वाले नहीं होकर पुल्लिंग वाले अथवा नपुंसकलिंग वाले हैं; उनमें प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'जस्' अथवा 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'उ' और 'ओ' प्रत्ययों की इनके स्थान पर आदेश प्राप्ति नहीं होती है। 'उ' अथवा 'ओ' की आदेश प्राप्ति केवल स्त्रीलिंग वाले शब्दों के लिये ही है; ऐसा स्पष्ट विधान प्रस्थापित करने के लिये ही सूत्र के प्रारंभ में 'स्त्रियाम्' जैसे शब्द को रखने की आवश्यकता हुई है । जैसे:वृक्षाः=वच्छा और वृक्षान्=वच्छा। इन उदाहरणों से विदित होता है कि पुल्लिंग में 'जस् अथवा शस्' के स्थान पर 'उ' और 'ओ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति नहीं होती है। प्रश्न:- 'जस्' अथवा 'रास्' ऐसा भी क्यों कहा गया है? उत्तरः- स्त्रीलिंग वाले शब्दों में 'उ' और 'ओ' आदेश रूप प्रत्ययों की प्राप्ति 'जस्' और 'शस्' के स्थान पर ही होती है; अन्य किसी भी विभक्ति के प्रत्ययों के स्थान पर 'उ' अथवा 'ओ' की आदेश प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:मालायाःकृतम्=मालाएं कयं अर्थात् माला का बनाया हुआ है। यहाँ पर षष्ठी विभक्ति के एकवचन का उदाहरण दिया गया है; जिसमें बतलाया गया है कि सूत्र- संख्या ३- २९ से 'ङस्' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हुई है; न कि 'उ' अथवा 'ओ' की; यों यह सिद्धान्त निश्चित किया गया है कि 'जस्- रास्' के स्थान पर ही 'उ' और 'ओ' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होती है; अन्यत्र नहीं। इसलिए वृत्ति में 'जस् और शस्' का उल्लेख करना पड़ा है। पंचमी विभक्ति के एकवचन में और बहुवचन में स्त्रीलिंग वाले शब्दों में जो 'उ' और 'ओ' प्रत्यय दृष्टिगोचर होते हैं; उनकी प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-८ और ३ - ९ में उल्लिखित 'दु' और 'दो' से निष्पन्न होती है; अतएव 'जस्-शस्' के स्थान पर 'उ' और 'ओ' आदेश प्राप्ति बतलाना निष्कलंक है। इसी प्रकार से संबोधन के बहुवचन में स्त्रीलिंग वाले शब्दों में 'उ' और 'ओ' की उपलब्धि भी निष्कलंक ही है; क्योंकि 'सम्बोधन - रूपों की प्राप्ति प्रथमावत् होती है और यह सिद्धान्त सर्वमान्य है; अतएव यह सिद्ध हुआ कि 'जस् शस्' के स्थान पर ही 'उ', 'ओ' की आदेश - प्राप्ति होती है; अन्यत्र नहीं । मालाः संस्कृत प्रथमान्त - द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप मालाउ, मालाओ और माला होते हैं। इनमें से प्रथम और द्वितीय रूपों में सूत्र - संख्या ३ - २७ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'उ' तथा 'ओ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दो रूप मालाउ और मालाओ सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय रूप- (माला :-) माला में सूत्र - संख्या ३-४ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' का प्राकृत में लोप होकर तृतीय रूप माला सिद्ध हो जाता है। बुद्धयः और बुद्धीः संस्कृत प्रथमान्त - द्वितीयान्त बहुवचन के क्रमिक रूप है इन दोनों के (सम्मिलित) प्राकृत रूप बुद्धी, बुद्धीओ ओर बुद्धी होते हैं। इनमें से प्रथम और द्वितीय रूप में सूत्र - संख्या ३ - २७ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'उ' तथा 'ओ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर शब्दान्त्य ह्रस्व स्वर को दीर्घ स्वर करते हुए क्रम से प्रथम दो रूप बुद्ध और बुद्धीओ सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय रूप- (बुद्धयः और बुद्धी:-) बुद्धी में सूत्र - संख्या - ३-४ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय ‘जस्–शस्' का प्राकृत में लोप और ३- १२ से तथा ३ - १८ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्-शस्' के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप बुद्धी सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy