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________________ 32 : प्राकृत व्याकरण ___ सख्य और सखीः संस्कृत प्रथमान्त-द्वितीयान्त बहुवचन के क्रमिक रूप हैं। इन दोनों के (सम्मिलित) प्राकृत रूप सहीउ, सहीओ और सही होते हैं। इनमें प्रथम और द्वितीय रूपों में सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत रूप 'सखी' में स्थित 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२७ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय जस्-शस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'उ' तथा 'ओ' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्त होकर क्रम से प्रथम दो रूप सहीउ और सहीओ सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय रूप-(सख्यः और सखी:-) सही में सूत्र-संख्या ३-४ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' का प्राकृत में लोप होकर तृतीय रूप सही सिद्ध हो जाता है। धेनवः और धेनूः संस्कृत प्रथमान्त-द्वितीयान्त बहुवचन के क्रमिक रूप हैं। इन दोनों के सम्मिलित प्राकृत रूप धेणूउ, धेणूओ और धेण होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२२८ से मूल संस्कृत रूप 'धेनु' में स्थित 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या ३-२७ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' के स्थानीय रूप 'अस्' स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ की प्राप्ति कराते हुए वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'उ' तथा 'ओ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से प्रथम दो रूप धेणूठ और धेणूओ सिद्ध हो जाते हैं। __ तृतीय रूप-(धेनवः और धेनूः ) घेणू में सूत्र-संख्या ३-४ से संस्कृत प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' का प्राकृत में लोप और ३-१२ से ३-१८ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्-शस्' के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ-स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप धेणू सिद्ध हो जाता है। वध्वः और वधूः संस्कृत प्रथमान्त-द्वितीयान्त बहुवचन के क्रमिक रूप हैं। इन दोनों के (सम्मिलित) प्राकृत रूप वहूउ, वहूओ और वहू होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत रूप 'वधू' में स्थित 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम दो रूप में सूत्र-संख्या ३-२७ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'उ' तथा 'ओ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से प्रथम दो रूप वहूउ और वहूओ सिद्ध हो जाते हैं। __ तृतीया रूप-(वध्वः और वधूः=) वहू में सूत्र-संख्या ३-४ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' का प्राकृत में लोप होकर तृतीया रूप वहू सिद्ध हो जाता है। वच्छा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है। मालायाः संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप मालाए होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२९ से संस्कृत षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप 'अस्-याः' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप मालाए सिद्ध हो जाता है। कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।।३-२७।। ईतः से श्चा वा ॥३-२८॥ स्त्रियां वर्तमानादीकारान्तात् सेर्जस्-शसोश्चस्थाने आकारो वा भवति ।। एसा हसन्तीआ। गोरीआ चिट्ठन्ति पेच्छ वा । पक्षे। हसन्ती। गोरीओ॥ अर्थः- प्राकृत भाषा में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में संस्कृत प्रथमा विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'सि' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आ' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे:- एषा हसन्ती एसा हसन्तीआ अर्थात् यह हँसती हुई। वैकल्पिक पक्ष होने से 'हसन्ती' (अर्थात् हँसती हुई) रूप भी प्रथमा विभक्ति के एकवचन में बनता है। इसी प्रकार से इन्हीं ईकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में संस्कृत प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर भी वैकल्पिक रूप से 'आ' आदेश की प्राप्ति हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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