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________________ 206 : प्राकृत व्याकरण द्वितीय रूप 'काहिमि' में 'का' अङ्ग रूप की प्राप्ति प्रथम रूप के समान ही होकर सूत्र-संख्या ३-१६६ से प्राप्तांग 'का' में भविष्यत्काल-सूचक प्राप्त प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-१४१ से भविष्यत-काल के अर्थ में प्राप्तांग 'काहि' में ततीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर काहिमि रूप भी सिद्ध हो जाता है। दास्यामि और दातास्मि संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लुट्लकार और लुट्लकार के तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूप (समान-रूप से) दाहं और दाहिमि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-१७० से मूल प्राकृत धातु 'दा' में भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन में पूर्वोक्त सूत्रों में (३-१६६ और ३-१४१ में) कथित प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' और 'मि' दोनों के ही स्थान पर 'ह' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर दाहं रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय-रूप 'दाहिमि' में सूत्र-संख्या ३-१६६ से प्राप्तांग 'दा' में भविष्यत्काल-सूचक प्राप्त प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-४१ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्तांग 'दाहि' में तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दाहिमि रूप भी सिद्ध हो जाता है।।३-१७०।। श्रु-गमि-रुदि-विदि-दृशि-मुचि-वचि-छिदि-भिदि-भुजां सोच्छं गच्छं रोच्छं वेच्छं दच्छं मोच्छं बोच्छं छेच्छं भेच्छं भोच्छं ।। ३-१७१।। श्रादीनां धातूनां भविष्यद्विहितम्यन्तानां स्थाने सोच्छमित्यादयो निपात्यन्ते। सोच्छं। श्रोष्यामि।। गच्छं। गमिष्यामि।। संगच्छं। संगस्ये। रोच्छं। रोदिष्यामि।। विद ज्ञाने। वेच्छं। वेदिष्यामि।। दच्छं। द्रक्ष्यामि।। मोच्छ। मोक्ष्यामि। वोच्छं। वक्ष्यामि।। छेच्छं। छेत्स्यामि।। भेच्छं। भेत्स्यामि। भोच्छं। भोक्ष्ये।।। ___ अर्थः- संस्कृत-भाषा की इन दस (अथवा ग्यारह) धातुओं श्रृ, गम्, (संगम), रूद्, विद्, दृश, मुच्, वच्, छिद्, भिद्, और भुज् के प्राकृत-रूपान्तर में भविष्यत्कालबोधक प्रत्यय के स्थान पर और तृतीय पुरुष के एकवचनार्थक प्रत्यय के स्थान पर रूढ़ रूप की प्राप्ति होती है और इसी रूढ़ रूप से ही भविष्यत्कालवाचक तृतीय पुरुष के एकवचन का अर्थ प्रकट हो जाता है। इस प्रकार से प्राप्त रूढ रूपों में न तो भविष्यत्काल-बोधक प्रत्यय 'हिस्सा-अथवा हा' की ही आवश्यकता होती है और न तृतीय पुरुष के एकवचनार्थक प्रत्यय 'मि' की ही आवश्यकता पड़ती है। इस विधि से प्राप्त ये रूप 'निपात' कहलाते हैं। उपर्युक्त संस्कृत भाषा की इन दस (अथवा ग्यारह) धातुओं के प्राकृत-रूपान्तर में भविष्यत्काल-बोध क-अवस्था में पाये जाने वाले रूढ़ रूप में तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में केवल अनुस्वार की प्राप्ति होकर भविष्यत्काल अर्थक तृतीय पुरुष के एकवचन का रूढ़ रूप बन जाता है। जैसे:- (१) श्रोष्यामि-सोच्छं-मैं सुनूँगा; (२) गमिष्यामि गच्छं=मैं जाऊँगा; (३) संग्रस्ये-संगच्छं-मैं स्वीकार करूँगा अथवा मैं मेल रक्खूगा; (४) रोदिष्यामि रोच्छं-मैं रोऊँगा; (५) वेदिष्यामि-वेच्छं-मैं जानूंगा; (६) द्रक्ष्यामि-दच्छं=मैं देखूगा; (७) मोक्ष्यामि=मोच्छं=मैं छोडूंगा; (८) वक्ष्यामि-वोच्छं-मैं कहूँगा; (९) छेत्स्यामि छेच्छं-मैं छेदूंगा; (१०) भेत्स्यामि=भेच्छं-मैं भेदूंगा और (११) भोक्ष्ये भोच्छं-मै खाऊंगा। उपर्युक्त धात्वादेश स्थिति केवल भविष्यत्काल के लिये ही होती है। इसी विषयक विशेष विवरण सूत्र-संख्या ३-१७२ में दिया जाने वाला है। श्रोष्यामि संस्कृत का सकर्मक रूप है। इसका प्राकृत-रूपान्तर सोच्छं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१७१ से सम्पूर्ण संस्कृत पद श्रोष्यामि के स्थान पर प्राकृत में सोच्छं रूप की आदेश प्राप्ति होकर भविष्यत्काल-अर्थक तृतीय पुरुष के एकवचन का बोधक रूप सोच्छं सिद्ध हो जाता है। गमिष्यामि संस्कृत का भविष्यत्काल अर्थक तृतीय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत-रूपांतर गच्छं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१७१ से संपूर्ण संस्कृत पद गामिष्यामि के स्थान पर प्राकृत में 'गच्छं' रूप सिद्ध हो जाता है। __संगस्ये संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत-रूप संगच्छं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१७१ से संस्कृत पद के स्थान पर प्राकृत-पद की आदेश प्राप्ति होकर संगच्छं पद की सिद्धि हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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