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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 205 हसिष्यामि अथवा हसितास्मि संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लुट्लकार और लुट्लकार के तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप हैं। इनका प्राकृत-रूप (समान-रूप से) हसिस्सं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१५७ से मूल प्राकृत 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्राप्तांग 'हसि' में सूत्र-संख्या ३-१६९ से भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन में पूर्वोक्त सूत्रों के कथित प्राप्तव्य प्राकृत-प्रत्ययों के स्थान पर 'स्सं प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर हसिस्सं रूप सिद्ध हो जाता है। कीर्तयिष्यामि संस्कृत का भविष्यत्कालवाचक लुट्लकार का तृतीय पुरुष के एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप कित्तइस्सं और कित्तइहिमि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-७९ से'त' में स्थित रेफ रूप 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए रेफ रूप 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-८४ से आदि वर्ण 'की' में स्थित दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर आगे प्राप्त संयुक्त व्यंजन 'त्त' का सद्भाव होने के कारण से हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'यि' वर्ण में स्थित 'य' व्यञ्जन का लोप; इस प्रकार संस्कृत-अंग रूप 'कीर्तयि' से प्राकृत में प्राप्तांग 'कित्तइ' में ३-१६९ से भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ष्यामि' के स्थान पर प्राकृत में प्रत्ययों के स्थान पर 'स्सं प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर कित्तइस्सं रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-१६६ से प्राकृत रूप के समान ही प्राप्तांग 'कित्तई' में भविष्यत्काल सूचक प्राप्त प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-१४१ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्तांग 'कित्तइहि' में तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कित्तइहिमि रूप भी सिद्ध हो जाता है। ३-१६९।। कृ-दो-हं ॥३-१७०।। करोतेर्ददातेश्च परो भविष्यति विहितस्य म्यादेशस्य स्थाने हं वा प्रयोक्तव्यः॥ काह। दाह। करिष्यामि दास्यामीत्यर्थः।। पक्षे। काहिमि। दाहिमि। इत्यादि।। ___ अर्थः- संस्कृत भाषा में पाई जाने वाली धातु 'कृ' और 'दा' के प्राकृत-रूपान्तर 'का' तथा 'दा' में भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्त प्राकृत-प्रत्यय 'हि' आदि के परे रहने पर तथा तृतीय पुरुष के एक-वचन-बोधक प्रत्यय 'मि' के परे रहने पर कभी-कभी वैकल्पिक रूप से ऐसा होता है कि उक्त भविष्यत्काल-द्योतक प्रत्यय 'हि' आदि के स्थान पर और उक्त पुरुष-बोधक प्रत्यय 'मि' के स्थान पर अर्थात् दोनों ही प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर उक्त दोनों धातुओं में केवल 'ह' प्रत्यय की ही आदेश प्राप्ति होकर भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन का अर्थ प्रकट हो जाता है। यों प्राकृत धातु का अथवा 'दा' में रहे हुए भविष्यत्काल-द्योतक प्रत्यय 'हि' आदि का भी लोप हो जाता है और तृतीय पुरुष के एकवचन-अर्थक प्रत्यय 'मि' का भी लोप हो जाता है; तथा दोनों ही प्रकार के इन लुप्त प्रत्ययों के स्थान पर केवल एक ही प्रत्यय 'ह' की ही आदेश प्राप्ति होकर तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में भविष्यत्काल का रूप इन धातुओं का तैयार हो जाता है। जैसे:- करिष्यामि अथवा कर्तास्मि-काह=मैं करूँगा अथवा मैं करता रहूंगा; चूँकि यह विधान वैकल्पिक स्थित वाला है अतएव पक्षान्तर में 'काहिमि' आदि रूपों का भी निर्माण हो सकेगा। 'दा' धातु का उदाहरण इस प्रकार है:दास्यामि अथवा दातास्मि-दाहं मैं देऊँगा अथवा मैं देता रहूंगा। पक्षान्तर में वैकल्पिक स्थिति होने के कारण 'दाहिमि' रूप का भी सद्भाव होगा। यह सूत्र केवल प्राकृत धातु 'का' ओर 'दा' के भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन के सम्बन्ध में ही बनाया गया है। ___करिष्यामि और कर्तास्मि संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लुट्लकार और लुट्लकार के तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूप (समान रूप से) काहं और काहिमि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-२१० से मूल संस्कृत-धातु 'कृ' में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होकर प्राकृत में 'का' अङ्ग-रूप की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम-रूप में सूत्र-संख्या ३-१७० से प्राप्तांग 'का' में भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन में पूर्वोक्त सूत्रों के कथित प्रत्यय 'हि' और 'मि' दोनों के ही स्थान पर 'ह' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर 'काहं' रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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