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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 337 हिन्दी:-हे श्रेष्ठ वृक्ष ! तुझसे अलग हुए भी पत्तों का पत्तापना नष्ट नहीं होता है; फिर भी यदि किसी तरह से तेरे उन पत्तों से उस समय भी छाया होती हो।। इस गाथा के आदि में त्वया' के स्थान पर 'पई पद का उपयोग किया गया है। संस्कृत : मम हृदयं त्वया, तया त्वं, सापि अन्येन विनाट्यते।। प्रिय! किं करोम्यहं? किं त्व? मत्स्येन मत्स्यं : गिल्यते।। २।। हिन्दी:-कोई एक नायिका अपने नायक से कहती है कि- हे प्रियतम! मेरा हृदय तुम से अधिकृत कर लिया गया है और तुम उस (स्त्री विशेष) से अधिकृत कर लिये गये हो और वह (स्त्री) भी अन्य किसी (पुरुष विशेष) में अधिकृत कर ली गई है। अब हे स्वामीनाथ! (तुम ही बतलाओ कि) मैं क्या करूँ? और तुम भी क्यो करो? (इस विश्व में तो) बड़ी मछली से छोटी मछली निगल ली जाती है। (यहां पर तो यही न्याय है कि सबल निर्बल को सताता रहता है।। २।। संस्कृत : त्वयि मयि द्वयोरपि रणगतयोः को जयश्रियं तर्कयति।। केशैर्गृहीत्वा यमगृहिणी, भण, सुखं कस्तिष्ठति।। ३।। हिन्दीः-तुम्हारे और मेरे दोनों ही के रण-क्षेत्र में उपस्थित होते हुए कौन विजय लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये इच्छा करता है? आशा करता है अथवा अपेक्षा रखता है ? यमराज की धर्म-पत्नी को (अर्थात् मृत्यु को) केशों द्वारा ग्रहण करके (याने मृत्यु के मुख के मुख में चले जाने पर) कहो बोलो ! कौन सुख पूर्वक रह सकता है ?।। ३।। संस्कृत : त्वां मुञ्चत्याः मम मरणं, मां मुञ्चतस्तव।। सारसः (यथा) यस्य दूरे (वेग्गला), स कृतान्तस्य साध्यः।। हिन्दी:-यदि मैं तुमको छोड़ दूं तो मेरी मृत्यु हो जायेगी और यदि तुम मुझको छोड़ देते हो तो तुम मर जाओगे। (दोनों ही-प्रियतम और प्रियतमा-परस्पर में एक दूसरे के वियोग में मृत्यु प्राप्त कर लेगें-जैसे कि-) नर सारस और मादा सारस यदि एक दूसरे से अलग हो जाते हैं तो वे यमराज के अधिकार में चले जाते हैं-अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।।४।। वृत्ति में कहा गया है कि जैसे 'पई' का प्रयोग गाथाओं में किया गया है; वैसे ही 'तइं का प्रयोग भी स्वयमेव समझ लेना चाहिये।।४।। ४-३७०।। भिसा तुम्हेहि।।४-३७१॥ अपभ्रंशे युष्मदो भिसा सह तुम्हेहिं इत्यादेशो भवति।। तुम्हेहिं अम्हेहिं जं किं अउं दिटुउं बहुअ-जणेण।। तं तेवड्डउं समर-भरू निज्जिउ एक-खणेण।। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'युष्मद्' सर्वनाम शब्द के साथ में तृतीया विभक्ति के बहुवचन वाले प्रत्यय 'भिस्' का संयोग होने पर मूल शब्द 'युष्मद् और प्रत्यय 'भिस्' दोनों के स्थान पर 'तुम्हेहिं' ऐसे एक पद की ही नित्यमेव आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- युष्माभिः तुम्हेहि-तुम (सब) से अथवा आप (सब) से गाथा का अनुवाद यों है: युष्माभिः अस्माभिः यत् कृतं दृष्टं बहुक-जनेन।। तद् (तदा) तावन्मात्रः समर भरः निर्जितः एक क्षणेन।।१।। हिन्दी:-जो कुछ आप (सब) से और हम (सब) से किया गया है, वह सब अनेकों पुरूष द्वारा देखा गया है। क्योंकि (हमने) एक क्षण मात्र में ही इतनी बड़ी लड़ाई जीत ली है-शत्रु को पलक मारते ही धराशयी कर दिया है।।१।।४-३७१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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