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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 191 बहुवचनार्थ में संस्कृत प्रत्यय 'मस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'म और मु' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर द्वितीय और चतुर्थ रूप 'हसिम और हसिमु' सिद्ध हो जाते हैं। ___ हसतु संस्कृत का आज्ञार्थक रूप है। इसके प्राकृत रूप हसेउ और हसउ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१५८ से मूल प्राकृत अकारान्त धातु 'हस' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति और ३-१७३ से क्रम से प्राप्तांग 'हसे और हस' में आज्ञार्थक लकारार्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'तु' के स्थान पर प्राकृत में 'दु-उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों प्राकृत रूप हसेउ और हसउ' सिद्ध हो जाते हैं। श्रृणोतु संस्कृत का आज्ञार्थक रूप है। अथवा श्रृणुयात् संस्कृत का विधिलिंग का (अर्थात् आज्ञा, निमन्त्रण आमंत्रण सत्कार पूर्वक निवेदन-विचार और प्रार्थना अर्थक) रूप है। इसके प्राकृत रूप सुणेउ और सुणउ तथा सुणाउ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-७९ से संस्कृत में प्राप्त धातु-अंग 'श्रनु' में स्थित श्रृ' के 'र' व्यंजन का लोप; १-२६० से लोप हुए 'र' व्यञ्जन के पश्चात् शेष रहे हुए श्' में स्थित तालव्य 'श्' के स्थान पर प्राकृत में दन्त्य 'स्' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ४-२३८ से प्राप्त ‘णु' में स्थित अन्त्य 'उ' के स्थान पर 'अ की प्राप्ति; ३-१५८ से प्राप्तांग 'सुण' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'ए' और 'अ' की प्राप्ति; और १-१७३ से क्रम से प्राप्तांग 'सुणे, सुण सुणा' में लोट लकार और विधिलिंग के अर्थ में है। प्राकृत में 'द-उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुणेउ, सुणउ और सुणाउ प्राकृत रूप सिद्ध हो जाते हैं। ____ हसत्-हसन् संस्कृत का कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप हसेन्तो और हसन्तो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१५८ से मूल प्राकृत अकारान्त धातु 'हस' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे वर्तमान कृदन्त अर्थक प्रत्यय का सदभाव होने के कारण से वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति; ३-१८१ से क्रम से प्राकृत में प्राप्तांग 'हसे और हस' में वर्तमान कृदन्त के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'शतृ' के स्थान पर 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्राकृत में क्रम से प्राप्तांग 'हसेन्त और हसन्त' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में डो=ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों प्राकृत-पद हसेन्ता और हसन्तो सिद्ध हो जाते हैं। __ जयति संस्कृत का अकर्मक रूप है इसका प्राकृत रूप जयइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३९ से संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी प्राप्त धातु 'जय' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति जयइ रूप सिद्ध हो जाता है। ३-१५८|| ज्जा-ज्जे।। ३-१५९॥ ज्जा ज्ज इत्यादेशयोः परयोरकारस्य एकारो भवति।। हसेज्जा हसेज्ज।। अत इत्येव। होज्जा। होज्ज।। अर्थः-सूत्र-संख्या ३-१७७ के निर्देश से धातुओं के अन्त में प्राप्त होने वाले वर्तमानकाल के, भविष्यत्काल के, आज्ञार्थक के और विध्यर्थक के सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर आदेश रूप से प्राप्त होने वाले प्रत्यय 'ज्जा और ज्ज' के परे रहने पर अकारान्त धातुओं के अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर नित्यमेव 'ए' की प्राप्ति होती है। जैसे:हसन्ति-हसिष्यन्ति-हसन्तु-हसेयुः हसेज्जा अथवा हसेज्जवे हँसते हैं-वें हँसेगे-वे हँसे; इत्यादि। यहाँ पर 'हस' धातु अकारान्त है और इसमें वर्तमान आदि लकारों में प्राप्त प्राकृत प्रत्ययों के स्थान पर आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'ज्जा-ज्ज' की प्राप्ति होने से 'हस' के अन्त्यस्थ 'अकार' के स्थान पर 'एकार' की बिना किसी वैकल्पिक रूप के प्राप्ति हो गई है। यों आदेश-प्राप्त 'ज्जा-ज्ज' प्रत्ययों का सद्भाव होने पर अन्य अकारान्त धातुओं में भी अन्त्य 'अ' के स्थान पर नित्यमेव 'एकार' की प्राप्ति का विधान ध्यान में रखना चाहिये। प्रश्नः- 'अकारान्त-धातुओं के लिये ही ऐसा विधान क्यों बनाया गया है? __ उत्तरः- जो प्राकृत धातु अकारान्त नहीं होकर अन्य स्वरान्त हैं, उनमें आदेश प्राप्त 'ज्जा-ज्ज' प्रत्ययों का सद्भाव होने पर भी उन अन्त्य स्वरों के स्थान पर अन्य किसी भी स्वर की आदेश प्राप्ति नहीं पाई जाती है; इसलिये केवल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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