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________________ 192 : प्राकृत व्याकरण अकारान्त धातुओं के लिये ही ऐसा विधान बनाने की आवश्यकता पड़ी है। जैसे :- भवन्ति-भविष्यन्ति-भवन्तु-भवेयुः= होज्जा अथवा होज्ज-वे होते हैं- वे होगे-वे होवें; इस उदाहरण में 'हो' धातु ओकारान्त है; इसीलिये आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'ज्जा-ज्ज' का सद्भाव होने पर अकारान्त धातुओं के अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति के समान इस 'हो' धातु के अन्त्यस्थ 'ओकार' के स्थान पर 'एकार' की प्राप्ति नहीं हुई है। यही अन्तर-भेद यह प्रदर्शित करता है कि केवल 'अकारान्त-धातुओं के अन्त्यस्थ 'अकार' के स्थान पर ही आगे आदेश-प्राप्त-प्रत्यय 'ज्जा-ज्ज' का सद्भाव होने पर 'एकार' की प्राप्ति होती है; अन्य स्वरान्त धातुओं में स्थित अन्त्य स्वरों के स्थान पर 'एकार' की प्राप्ति का विधान नहीं है। ____ हसन्ति, हसिष्यन्ति, हसन्तु और हसेयु संस्कृत के क्रम से वर्तमानकाल के, भविष्यकाल के, लोट्लकार के और लिङ्लकार के प्रथमपुरुष के बहुवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से हसेज्जा और हसेज्ज रूप होते है। इन दोनों प्राकृत-रूपों में सूत्र-संख्या ३-१५९ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१७७ से प्राकृत में प्राप्तांग 'हसे' में वर्तमानकाल के भविष्यकाल के, लोट्लकार के और लिङ्लकार के अर्थ में संस्कृत प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर 'ज्जा और ज्ज' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों क्रियापद के रूप हसेज्जा और हसेज्ज सिद्ध हो जाते हैं। ____ भवन्ति, भवियन्ति, भवन्तु और भवेयुः संस्कृत के क्रम से वर्तमानकाल के, भविष्यत्काल के, लोट्लकार के और लिङ्लकार के प्रथमपुरुष के बहुवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप है। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से होज्जा और होज्ज रूप होते हैं। इन दोनों प्राकृत रूपों में सूत्र-संख्या ४-६० से संस्कृत-धातु 'भू-भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१७७ से प्राकृत में प्राप्तांग 'हो' में वर्तमानकाल के, भविष्यत्काल के, लोट्लकार के और लिङ्लकार के अर्थ में संस्कृत प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में प्राप्त सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर 'ज्जा और ज्ज' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों प्राकृत-क्रियापद के रूप होज्जा और होज्ज सिद्ध हो जाते हैं। ३-१५९।। ईअ-इज्जौ क्यस्य।।३-१६०॥ चिजि प्रभृतीनां भाव-कर्म-विधिं वक्ष्यामः। येषां तु न वक्ष्यते तेषां संस्कृतातिदेशात् प्राप्तस्य क्यस्य स्थाने ईअ इज्ज इत्येतावादेशौ भवतः।। हसीअइ। हसिज्जइ। हसीअन्तो। हसिज्जन्तो। हसीअमाणो। हसिज्जमाणो। पढीअइ। पढिज्जइ। होईअइ। होइज्जइ।। बहुलाधिकारात् क्वचित् क्योपि विकल्पेन भवति। मए नवेज्ज। मए नविज्जेज्ज। तेण लहेज्ज। तेण लहिज्जेज्ज। तेण अच्छेज। तेण अच्छिज्जेज्ज। तेण अच्छीअइ।। ___ अर्थः- संस्कृत के समान ही प्राकृत भाषा में भी क्रिया तीन प्रकार की होती है; जो कि इस प्रकार है:- (१) कर्तृवाचक, (२) कर्मवाचक और (३) भावचावक। इसी पाद में पहले कर्तृवाच्य प्रयोग के सम्बन्ध में बतलाया जा चुका है। अब कर्मणि प्रयोग और भावे प्रयोग का स्वरूप बतलाया जाता है। कर्मणि प्रयोग और भावे प्रयोग की रचना पद्धति एक जैसी ही अर्थात् समान ही होती है; इन दोनों में इतना सा नाम मात्र का ही अन्तर है कि कर्मणि प्रयोग मुख्यतः सकर्मक-धातुओं से ही बनाया जाता है जबकि भावे-प्रयोग अकर्मक-धातुओं से ही बनता है; प्रत्यय आदि की दृष्टि से दोनों की रचनाएँ परस्पर में समान ही होती है। भावे-प्रयोग में कर्म का अभाव होने से सदा प्रथमपुरुष और एकवचन ही प्रयुक्त होता है। जबकि कर्मणि प्रयोग में कर्मका सद्भाव होने से तीनों पुरुषों के साथ-साथ बहुवचन का प्रयोग भी होता है। इन दोनों प्रयोगों में कर्ता तृतीयान्त होता है और कर्म प्रथमान्त होता है। क्रिया के पुरुष और वचन प्रथमान्त कर्म के अनुसार होते हैं। जसे:- अस्माभिः त्वम् आहूयसे-हमारे द्वारा तू बुलाया जाता है; यहां कर्ता अस्माभिः' बहुवचनान्त होने पर भी कर्म 'त्वम्' एकवचनान्त होने से 'आहूयसे' क्रिया कर्म के अनुसार एकवचनात्मक और द्वितीय पुरुषात्मक प्रदर्शित की गई है। इस प्रकार यदि किसी कर्तृवाच्य प्रयोग को कर्म-वाच्य में बदलना हो तो प्रथमान्त कर्ता को तृतीयान्त कर देना चाहिये और द्वितीयान्त कर्म को प्रथमान्त में बदल देना चाहिये। जैसे:- पुरुषः स्तेन प्रहरति-पुरुषेण स्तेनंः प्रह्यियते-पुरुष से चोर मारा जाता है। ___ 'चि, जि' इत्यादि कुछ प्राकृत धातुओं के बनने वाले कर्मणि प्रयोग भावे प्रयोग का वर्णन आगे बतलाया जायेगा; यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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