________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 193 पर तो सर्व-सामान्य रूप से बनने वाले कर्मणि-प्रयोग-भावे-प्रयोग की पद्धति का परिचय कराया जा रहा है; तदनुसार जैसे संस्कृत भाषा में मूल धातु और आत्मनेपदीय पुरुष बोधक-प्रत्ययों के मध्य में कर्मणि-भावे-प्रयोग द्योतक प्रत्यय 'क्य-य' जोड़ा जाता है वैसे ही प्राकृत भाषा में भी मूल-धातु और कर्तरि प्रयोग के लिये कहे गये पुरुष-बोधक प्रत्ययों के बीच में संस्कृत प्रत्यय 'क्य-य' के स्थान पर 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्यय की संयोजना कर देने से वह क्रियापद का रूप कर्मणि-प्रयोग द्योतक अथवा भावे-प्रयोग द्योतक बन जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि जब किसी भी प्राकृत धातु का अमुक काल में कर्मणि-प्रयोग अथवा भावे प्रयोग बनाना हो तो उस काल के कर्तरि प्रयोग के लिये कहे गये पुरुष बोधक प्रत्यय जोड़ने के पहले मूल धातु में 'इअ अथवा इज्ज' प्रत्यय लगाया जाना चाहिये और तदनन्तर जिस काल का कर्मणि-भावे प्रयोग बनाना हो उस काल के कर्तरि प्रयोग के लिये कहे गये प्रत्यय लगा देने से कर्मणि-भावे-प्रयोग के रूप सिद्ध हो जाते हैं। जैसे:- हस्यते-हसीअइ अथवा हसिज्जइ उससे हँसा जाता है। हस्यत्-हस्यन् हसीअन्तो अथवा हसिज्जन्तो
और हसीअमाणो अथवा हसिज्ज माणो-हंसा जाता हुआ; यह उदाहरण वर्तमान कृदन्त पूर्वक भावे-प्रयोग वाला है। चूंकि प्राकृत में वर्तमान कृदन्त में सूत्र-संख्या ३-१८१ के निर्देश से संस्कृत प्राप्तव्य वर्तमानक-कृदन्त-बोधक प्रत्यय शतृ अत् के स्थान पर 'न्त और माण' प्रत्ययों की प्राप्ति होती है; इसलिये संस्कृत वर्तमान-कृदन्तीय क्रिया-पद 'हस्यत्-हस्यन्' के प्राकृत में उपर्युक्त रीति से चार रूप होते हैं। सूत्र की वृत्ति में दो उदाहरण और दिये गये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:पठ्यते-पढीअइ अथवा पढिज्जइ-उससे पढ़ा जाता है। भूयते-होईअइ अथवा होइज्जइ-उससे हुआ जाता है। 'बहुलम् सूत्र के अधिकार से कभी-कभी कर्मणि-भावे- प्रयोग के अर्थ में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ईअ' अथवा इज्ज' की प्राप्ति नहीं होकर भी उक्त कर्मणि-भावे प्रयोग के रूप बन जाया करते हैं; जैसे:- मया नम्यते मए नवेज्ज अथवा मए नविज्जेज्ज-मुझ से नमस्कार किया जाता है अथवा मुझ से नमा जाता है-झुका जाता है। अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं:- तेन लभ्यते-तेग लहेज्ज अथवा तेण लहिज्जेज्ज-उससे प्राप्त किया जाता है। तेन आस्यते-तेण अच्छेज्ज अथवा तेण अच्छिज्जेज्ज और तेण अच्छीअइ-उससे बैठा जाता है। इन उदाहरणों में यह बतलाया गया है कि प्राकृत में कर्मणि-भावे-प्रयोग-द्योतक प्रत्यय 'इअ अथवा इज्ज' की प्राप्ति कभी-कभी वैकल्पिक रूप से भी होती है। इसका कारण 'बहुलम् सूत्र है। इस प्रकार संस्कृत में कर्मणि-भावे-प्रयोग के अर्थ में 'य' के स्थान पर प्राकृत में 'इज्ज' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। यही तात्पर्य इस सूत्र का है।
हस्यते संस्कृत का भावे प्रयोग अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप हसीअइ और हसिज्जइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१० से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्राप्त भावे प्रयोग अर्थक 'ईअ और इज्ज' प्रत्ययों में क्रम से आदि में स्थित दीर्घ और ह्रस्व स्वर 'ई तथा इ' का सद्भाव होने के कारण से लोप; ३-१६० से प्राप्तांग हलन्त धातु 'हस्' में भावे-प्रयोग-अर्थक प्रत्यय 'ईअ और इज्ज' की क्रम से प्राप्ति ओर १-५ से हलन्त धातु 'हस्' के साथ में उपर्युक्त रीति से प्राप्त प्रत्यय 'ईअ ओर इज्ज' की क्रम से संधि एवं ३-१३९ से प्राप्तांग भावे-प्रयोग-अर्थ रूप हस अ और हसिज्ज में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसीअइ और हसिज्जइ रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ हस्यन् संस्कृत का वर्तमान कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूपः-हसीअन्तो हसिज्जन्तो, हसिअमाणो और हसिज्जमाणा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१० से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्राप्त भावे-प्रयोग–अर्थक 'ईअ और इज्ज' प्रत्ययों में क्रम से आदि में स्थित दीर्घ और हस्व स्वर 'ई तथा इ' का सद्भाव होने के कारण से लोप; ३-१६० से प्राप्तांग हलन्त धातु 'हस्' में भावे प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'ईअ और इज्ज' की (चारों रूपों में) क्रम से प्राप्ति; १-५ से हलन्त धातु 'हस' के साथ में उपर्युक्त रीति से प्राप्त प्रत्यय 'ईअ और इज्ज' की क्रम से (चारों रूपों से) संधि; ३-१८१ से क्रम से प्राप्तांग 'हसीअ और हसिज्ज' तथा 'हसीअ और हसिज्ज' में वर्तमान कृदन्त-अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'शतृ अत्' के स्थान पर प्राकृत में 'न्त और माण' प्रत्ययों की (चारों रूपों में) क्रम से प्राप्ति; और ३-२ से क्रम से चारों प्राप्तांग 'हसीअन्त, हसिज्जन्त, हसीअमाण तथ हसिज्जमाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुंल्लिग में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org