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194 : प्राकृत व्याकरण संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप हसीअन्तो, हसिज्जन्तो, हसीअमाणो तथा हसिज्जमाणो सिद्ध हो जाते हैं।
पठ्यते संस्कृत का कर्मणि-रूप है। इसके प्राकृत रूप पढीअइ और पढिज्जइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१९९ से मूल संस्कृत-धातु 'पठ्' में स्थित '' के स्थान पर प्राकृत में 'द' की प्राप्ति; ३-१६० से प्राप्तांग 'पढ' में कर्मणि प्रयोग अर्थक 'ईअ और इज्ज' की क्रम से प्राप्ति; १-५ से हलन्त धातु पढ के साथ में उपर्युक्त रीति से प्राप्त प्रत्यय 'इअ और इज्ज' की क्रम से संधि और ३-१३९ से प्राप्तांग कर्मणि-प्रयोग-अर्थक रूप 'पढीअ और पढिज्ज' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पढीअइ
और पढिज्जइ रूप सिद्ध हो जाते हैं। __ भूयत संस्कृत का भावे प्रयोग रूप है। इसके प्राकृत रूप होईअइ और होइज्जइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु 'भू' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' रूप की आदेश प्राप्ति; ३-१६० से प्राप्तांग 'हो' में भावे-प्रयोग-अर्थक प्रत्यय 'ईअ और इज्ज' की क्रम से प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्तांग भावे-प्रयोग अर्थक रूप होईअ और होइज्ज' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होईअइ और होइज्जइ रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'भए' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१०९ में की गई है।
नम्यते संस्कृत का अकर्मक रूप है। इसके प्राकृत रूप नवेज्ज और नविज्जेज्ज होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-२२६ से मूल संस्कृत धातु 'नम्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'म्' के स्थान पर प्राकृत में व्' की आदेश प्राप्ति; ३-१६० की वृत्ति से भावे-प्रयोग के अर्थ में प्रत्यय 'इज्ज' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; ४-२३९ से प्रथम रूप में हलन्त धातु 'नव्' में विकरण प्राप्तव्य प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५९ से क्रम से प्राप्त भावे-प्रयोग-अर्थकांग 'नव और नविज्ज' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर नित्य रूप से 'ए' की प्राप्ति और ३-१७७ से क्रम से प्राप्त भावेप्रयोग अर्थ अंग 'नवे और नविज्जे' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' के स्थान पर 'ज्ज' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर नवेज्ज और नविज्जेज्ज रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'तेण' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६९ में की गई है।
लभ्यत संस्कृत का कर्मणि रूप है। इसके प्राकृत रूप लहेज्ज और लहिज्जेज्ज होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत धातु 'लभ' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'भ' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' व्यंजन की आदेश प्राप्ति; ३-१६० की वृत्ति से भावे प्रयोग के अर्थ में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इज्ज' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; ४-२३९ से प्रथम रूप में हलन्त धातु 'लह' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५९ से क्रम से प्राप्त भावे प्रयोग अर्थक अंग 'लह और लहिज्ज' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर नित्य रूप से 'ए' की प्राप्ति और ३-१७७ से क्रम से प्राप्त भावे प्रयोग अर्थक अंग 'लहे और लहिज्जे' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' के स्थान पर 'ज्ज' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर लहे और लहिज्जेज्ज रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'तेण' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६९ में की गई है।
आस्यते संस्कृत का अकर्मक रूप है। इसके प्राकृत रूप अच्छेज्ज, अच्छिज्जेज्ज और अच्छीअइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-२१५ से मूल संस्कृत धातु 'आस्' में स्थित अन्त्य व्यंजन 'स्' के स्थान पर 'छ्' की आदेश प्राप्ति; २-८९ से आदेश प्राप्त व्यञ्जन 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २९० से द्वित्व प्राप्त 'छ्छ' में से प्रथम 'छ्' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; १-८४ से मूल धातु 'आस्' में स्थित आदि दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर आगे 'स्' के स्थान पर उपर्युक्त रीति से संयुक्त व्यंजन 'च्छ' की प्राप्ति हो जाने से हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति होकर प्राकृत में धातु रूप 'अच्छ' की प्राप्ति; ३-१६० की वृत्ति से प्राप्त प्राकृत धातु 'अच्छ' में भावे-प्रयोग-अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक
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