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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 195 रूप से 'इज्ज और ईअ' प्रत्ययों की क्रम से प्राप्ति होकर भावे-प्रयोग-अर्थक-अंग 'अच्छ, अच्छिज्ज, अच्छीअ' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्रथम रूप 'अच्छ' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५९ से प्राप्त प्रथम रूप अच्छ' और द्वितीय रूप 'अच्छिज्ज' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे 'ज्ज' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'ए' की नित्यमेव प्राप्ति; ३-१७७ से प्रथम और द्वितीय भावे प्रयोग अर्थक अंगों में अर्थात 'अच्छे और अच्छिज्जे में वर्तमानकाल के प्रथमपरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' के स्थान पर 'ज्ज' प्राप्तव्य प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर 'अच्छेज्ज तथा अच्छिज्जेज्ज रूप सिद्ध हो जाते हैं; जबकि तृतीय रूप में भावे प्रयोग अर्थक अंग 'अच्छीअ' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर 'अच्छीअइ' रूप भी सिद्ध हो जाता है। ।।३-१६०।। दशि-वचे स-डुच्चं॥३-१६१॥ दृशेर्वचेश्च परस्य क्यस्य स्थाने यथासंख्यं डीस डुच्च इत्यादेशौ भवतः।। ईअइज्जापवादः।। दीसइ। वुच्चइ।। अर्थः- दृश् और वच् धातु का जब प्राकृत में कर्मणि-भावे-प्रयोग का रूप बनाना हो तो इन धातुओं के प्राकृत-रूपान्तर में कर्मणि-भावे-प्रयोग-अर्थक संस्कृत प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में सूत्र-संख्या ३-१६० के अनुसार प्राप्त प्रत्यय 'ईअ और इज्ज' की प्राप्ति नहीं होती है, किन्तु इन कर्मणि भावे-प्रयोग-अर्थक प्रत्यय 'ईअ और इज्ज' के स्थान पर क्रम से 'दृश्' धातु में तो 'डीस्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है और 'वच्' धातु में 'डुच्च' प्रत्यय की प्राप्ति होती है; इस प्रकार से इन दोनों धातुओं के कर्मणि भावे-प्रयोग-अर्थ में मूल अंगों का निर्माण होता है। प्राप्त प्रत्यय 'डीस और डुच्च' में स्थित आदि 'डकार' इत्संज्ञक होने से पूर्वोक्त धातु 'दृश्' में स्थित अन्त्य 'श्' का और वच्' में स्थित अन्त्य 'च' का लोप हो जाता है। तत्पश्चात् प्राकृत भाषा के अन्य-नियमों के अनुसार शेष रहे हुए धातु-अंश 'दृ' और 'व' में कर्मणि भावे प्रयोग–अर्थक प्रत्यय 'ईस' तथा 'उच्च' की प्राप्ति होकर इष्ट काल संबंधित पुरुष-बोधक प्रत्ययों की संप्राप्ति होती है। इस नियम को अर्थात् सूत्र-संख्या ३-१६१ को पूर्वोक्त सूत्र-संख्या ३-१६० का अपवाद की समझना चाहिये। तदनुसार इस सूत्र में वर्णित विधान पूर्वोक्त कमणि-भावे प्रयोग-अर्थक प्रत्यय 'ईअ और इज्ज' के लिये अपवाद-स्वरूप ही है; ऐसा ग्रन्थकार का मन्तव्य है। उपर्युक्त धातुओं के कर्मणि भावे-प्रयोग के अर्थ में उदाहरण इस प्रकार हैं:- दृश्यते-दीसइ (उससे) देखा जाता है; उच्यते वुच्चइ-(उससे) कहा जाता है। दृश्यते संस्कृत का कर्मणि-रूप है। इसका प्राकृत रूप दीसइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६१ से मूल संस्कृत-धातु 'दृश' में स्थित अन्त्य 'श्' के आगे कर्मणि-प्रयोग-अर्थ प्रत्यय 'डीस' की संप्राप्ति होने से तथा प्राप्त प्रत्यय डीस' में स्थित आदि 'डकार' इत्संज्ञक होने से लोप; १-१० से शेष धातु अंश 'दृ' में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' का आगे कर्मणि-प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'ईस' की संप्राप्ति होने से इसमें स्थित आदि स्वर 'ई' का सद्भाव होने के कारण से लोप; १-५ से शेष हलन्त-धातु-अंश'दृ' के साथ में आगे प्राप्त प्रत्यय 'ईस' की संधि होकर मूल संस्कृत कर्मणि प्रायोगिक रूप 'दृश्य' के स्थान पर प्राकृत में कर्मणि प्रयोग अर्थक-अंग 'दीस' की संप्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत की आदेश प्राप्ति होकर दीसइ रूप सिद्ध हो जाता है। ___ उच्यते संस्कृत का अकर्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप वुच्चइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६१ से मूल संस्कृत धातु 'वच्' में स्थित अन्त्य 'च' के आगे भावे प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'डुच्च' की संप्राप्ति होने से तथा प्राप्त प्रत्यय 'डुच्च' में स्थित आदि 'डकार' इत्संज्ञक होने से लोप; १-१० से शेष धातु-अंश 'व' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे भावे-प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'उच्च' की संप्राप्ति होने से इसमें स्थित आदि स्वर 'उ' का सद्भाव होने के कारण से लोप; १-५ से शेष हलन्त धातु अंश 'व्' के साथ में आगे प्राप्त प्रत्यय 'उच्च' की संधि होकर मूल संस्कृत भावे-प्रायोगिक रूप 'उच्च' के स्थान पर प्राकृत में भावे प्रयोग अर्थक अंग 'वुच्च' की संप्राप्ति और ३-१२९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर वुच्चइ रूप सिद्ध हो जाता है।।३-१६२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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