________________
196 : प्राकृत व्याकरण
सी ही हीअ भूतार्थस्य ।। ३-१६२।। भूतार्थे विहितोद्यतन्यादिः प्रत्ययो भूतार्थः तस्य स्थाने सी ही हीअ इत्यादेशा भवन्ति।। उत्तरत्र व्यञ्जनादी अविधानात् स्वरान्तादेवायं विधिः। कासी। काही। काही। अकार्षीत्। अकरोत्। चकार वेत्यर्थः। एवं ठासी। ठाही। ठाहीआ। आर्षे। देविन्दो इणमब्बवी इत्यादौ सिद्धावस्थाश्रयणात् हस्तन्याः प्रयोगः।।
अर्थः- संस्कृत-भाषा में भूतकाल के तीन भेद किये गये हैं; जिनके नाम इस प्रकार हैं:(१) सामान्य- भूतः- इसका अपर नाम अद्यतन-भूतकाल भी है और इसको लुङ्लकार कहते हैं। (२) ह्यस्तन- भूतः- इसका अपर नाम अनद्यतन-भूतकाल भी है और इसको लङ्लकार कहते हैं। (३) परोक्ष- भूतः- इसको लिट्लकार कहते हैं। संस्कृत भाषा में इस प्रकार तीन भूतकालिकलकार हैं; प्राचीनकाल
में इन के अर्थों में भेद किया जाकर तदनुसार इनका प्रयोग किया जाता था; परन्तु आजकल की प्रचलित संस्कृत भाषा में बिना भेद के इनका प्रयोग किया जाता है। इस सम्बन्ध में कोई दृढ़ नियम नहीं माना जाता है। आधुनिक समय में लकारों का भूतकाल के अर्थ में बिना किसी भी प्रकार का भेद किये प्रयोग कर लिया जाता है। इनका सामान्य परिचय इस प्रकार है:(१) अति निकट रूप से व्यतीत हुए काल में अथवा गत कुछ दिनों में की गई क्रिया के लिए अथवा उत्पन्न हुई
क्रिया के लिये सामान्य भूतकाल का अथवा अद्यतन-भूतकाल का प्रयोग किया जाता है। (२) अति निकटकाल की अपेक्षा से कुछ दूर के काल में अथवा कुछ वर्षों पहिले की गई क्रिया के लिये अथवा
उत्पन्न हुई क्रिया के लिये ह्यस्तन-भूतकाल का अथवा अनद्यतन-भूतकाल का प्रयोग किया जाता है। (३) अत्यन्त दूर के काल में अथवा अनेकानेक वर्षों पहिले की गई क्रिया के लिये अथवा उत्पन्न हुई क्रिया के लिये परोक्ष-भूतकाल का प्रयोग किया जाता है। जो क्रिया अपने प्रत्यक्ष में हुई हो, उसके लिये परोक्ष-भूतकाल का प्रयोग नहीं किया जा सकता है। अन्य-भाषाओं की व्याकरण में जैसे पूर्ण भूत, अपूर्ण भूत ओर संदिग्ध भूत के नियम और रूप पाये जाते हैं; वैसे रूप और नियम संस्कृत भाषा में नहीं पाये जाते हैं; इन सभी के स्थान पर संस्कृत भाषा में केवल या तो सामान्य भूत का प्रयोग किया जायेगा अथवा परोक्ष-भूत का; यही
परम्परा प्राकृत भाषा के लिये भी जानना चाहिये। प्राकृत भाषा में संस्कृत भाषा के समान भूतकाल अर्थक उपर्युक्त तीनों लकारों का अभाव है; इसमें तो सभी भूत-कालिक-लकारों के लिये इनसे सम्बन्धित प्रथम-द्वितीय-तृतीय पुरुषों के लिये तथा एकवचन एवं बहुवचन के लिये एक जैसे ही समान रूप के भूतकाल-अर्थक-प्रत्यय पाये जाते हैं; धातुओं के साथ में इनकी संयोजना करने से प्रत्येक प्रकार का भूत-कालिक-लकार बन जाया करता है। अन्तर है तो इतना सा है कि व्यञ्जनान्त धातुओं के लिये और स्वरान्त धातुओं के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार के भूतकात-अर्थक-प्रत्यय हैं। इस प्रकार प्राकृत भाषा में सर्व सामान्य सुलभता की बात यह है कि व्यञ्जनान्त धातु के लिये अथवा स्वरान्त धातु के लिये तीनों पुरुषों में एवं दोनों वचनों में तथा सभी भूत-कालिक-लकारों में एक जैसे ही प्रत्यय पाये जाते हैं। इस सूत्र-संख्या ३-१६२ में स्वरान्त धातुओं में जोड़े जाने वाले भूतकाल-अर्थक-प्रत्ययों का निर्देश किया गया है: व्यञ्जनान्त धातओं में जोड़े जाने वाले भतकाल-अर्थक-प्रत्ययों का उल्लेख इससे आगे आने वाले सूत्र-संख्या ३-१६३ में किया जाने वाला है। इस प्रकार इस सूत्र में यह बतलाया गया है कि यदि प्राकृत भाषा में किसी भी स्वरान्त धातु का किसी भी भूतकालिक लकार में, किसी भी पुरुष का और किसी भी वचन का कैसा भी रूप बनाना हो तो प्राकृत भाषा की उस स्वरान्त धातु के मूल रूप के साथ में 'सी, ही अथवा हीअ' प्रत्यय की संयोजना कर देने से भूतकाल के अर्थ में इष्ट पुरुष वाचक और इष्टवचन-बोधक रूप का निर्माण हो जायेगा। इस विवेचना से यह प्रमाणित होता है कि संस्कृत-भाषा में भूतकाल-बोधक-लकारों में प्रत्ययों के स्थान पर सभी पुरुष-बोधक-अर्थों में तथा सभी वचनों के अर्थों में प्राकृत में 'सी, ही और हीअ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org