________________
154 : प्राकृत व्याकरण ३-१३४ से तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-१० से मूल शब्द 'चिर' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप चिरस्स सिद्ध हो जाता है।
मुक्ता संस्कृत प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप मुक्का होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'त्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व'क्क' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत शब्दान्त्य स्वर को दीर्घता की प्राप्ति होने से मूल प्राकृत शब्द 'मुक्का' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'आ' को यथा-स्थित की प्राप्ति होकर मुक्का रूप सिद्ध हो जाता है।
'तेसिं' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-८१ में की गई है। 'एअं सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-८५ में की गई है।
अनाचरितम्-अनाचीर्णम् संस्कृत प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त विशेषणात्मक नपुंसकलिंग का रूप है। इसका प्राकृत अणाइण्णं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७७ से 'च' का लोप; १-८४ से लोप हुए 'च' के पश्चात् शेष रहे हुए दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर संयुक्त व्यञ्जन र्ण=ण्ण' का सद्भाव होने से हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-७९ से रेफ रूप हलन्त व्यञ्जन 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ण' को द्वित्व ण्ण' की प्राप्ति और ३-२५ से प्राप्त रूप 'अणाइण्ण, में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थानीय संस्कृत प्रत्यय 'म्' के स्थान पर प्राकृत में भी 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अणाइण्णं रूप सिद्ध हो जाता है। __ चोरात् संस्कृत पञ्चमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिग रूप है। इसका प्राकृत रूप चोरस्स है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३४ से पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-१० से मूल शब्द 'चोर' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप चोरस्स सिद्ध हो जाता है।
बिभेति संस्कृत वर्तमानकालीन प्रथमपुरुष बोधक एकवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप बीहइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-५३ से संस्कृत मूल धातु 'बिभ के स्थान पर प्राकृत में 'बीह' रूप की आदेश प्राप्ति; ४-२३९ से हलन्त व्यंजनान्त धातु 'बीह' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमानकालीन प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप बीहइ सिद्ध हो जाता है।
इतराणि संस्कृत प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति का बहुवचनान्त विशेषणात्मक नपुंसकलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप इअराइं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; तत्पश्चात् ३-२६ से प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय आनि' के स्थान पर प्राकत में प्राप्त शब्द 'इअर' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर अको दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति पूर्वक 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप इअराई सिद्ध हो जाता है। 'जाण' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६१ में की गई है।
लघु अक्षराणि संस्कृत प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति का बहुवचनान्त नपुंसकलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप लहु अक्खराइं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' को प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३-२६ से प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आनि' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्त शब्द 'लहु-अक्खर' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति-पूर्वक 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप लहु-अक्खराइं सिद्ध हो जाता है। '
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org