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340 : प्राकृत व्याकरण
हिन्दी:- योद्धा युद्ध में जाते हुए अपनी प्रियतमा को कहता है कि कायर लोग ऐसा कहते हैं कि-हम थोड़े है और शत्रु बहुत है; (परन्तु) हे मुग्धे-हे प्रियतमे ! आकाश को देखो-आकाश की ओर दृष्टि करो, कि कितने ऐसे हैं जो कि चन्द्र-ज्योत्स्ना की-चाँदनी को-किया करते हैं ?।।१।। अर्थात् चन्द्रमा अकेला ही चांदनी करता है। संस्कृत : अम्लत्वं लागयित्वा ये गताः पथिकाः परकीयाः केऽपि।।।
अवश्यं न स्वपन्ति सुखासिकायां यथा वयं तथा तेऽपि।। २।। अर्थः- जो कोई भी पर-स्त्रियों पर प्रेम करने वाले पथिक अर्थात् यात्री प्रेम लगा करके (परदेश) चले गये है; वे अवश्य ही सुख की शैय्या पर नहीं सोते होंगे; जैसे हम (नायिका विशेष) सुख-शैय्या पर नहीं सोती हैं; वैसे ही वे भी होगे।। २।।
ऊपर की गाथाओं में 'अम्हे हम' और 'अम्हइं-हम' ऐसा समझाया गया है। 'हमको' के उदाहरण यों है।।
अस्मान् (अथवा) नः पश्यति-अम्हे देखइ अथवा अम्हइं देक्खइ-वह हमको अथवा हमें देखता है। इन आदेश प्राप्त पदों को पृथक् पृथक् रूप से लिखने का तात्पर्य यह है कि दोनों ही पद अर्थात् 'अम्हे और अम्हई प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में समान रूप से होते हैं; क्रम रूप से नहीं होते है।। यों यथा-संख्य' रूप का अर्थात् 'क्रम-रूप' का निषेध करने के लिये ही 'वचन-भेद' शब्द का वृत्ति के अन्त में उल्लेख किया गया है।।४-३७६।।
टा-ङयमा मइ।।४-३७७।। अपभ्रंशे अस्मदः टा डि अम् इत्येतैः सह मई इत्यादेशो भवति।। टा।। मई जाणिउं पिअ विरहिअहं कवि धर होइ विआलि।। णवर मिअङ् कुवि तिह तवइ जिह दिणयरू खय-गालि।। डिना। पइं मई बेहिं वि रण-गयहि।। अमा। भई मेल्लन्तहो तुज्झु।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'अस्मद्' सर्वनाम शब्द में तृतीया विभक्ति के एकवचन-अर्थक प्रत्यय 'टा' का संयोग हाने पर मूल शब्द 'अस्मद् और प्रत्यय 'टा' दोनों के स्थान पर 'मइ' ऐसे एक ही पदरूप की नित्यमेव
आदेश-प्राप्ति होती है। जैसे:- मया मइं-मुझसे, मेरे से।। इसी प्रकार से इसी सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के साथ में सप्तमी विभक्ति के एकवचन के अर्थ वाले प्रत्यय 'डि' का सम्बन्ध होने पर भी मूल शब्द 'अस्मद् और प्रत्यय डि' दोनों ही के स्थान पर वही 'मई ऐसे पद-रूप की सदा ही आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:-मयि-मई-मुझ पर, मुझ में, मेरे पर, मेरे में,। द्वितीया विभक्ति के संबंध में भी यही नियम है कि जिस समय में इस 'अस्मद्' सर्वनाम के शब्द के साथ में द्वितीया विभक्ति के एकवचन के अर्थ वाले प्रत्यय 'अम्' की संप्राप्ति होती है, तब भी मूल शब्द 'अस्मद् और प्रत्यय 'अम्' दोनो ही के स्थान पर 'मई ऐसे इस एक ही पद की हमेशा ही आदेश प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- माम्=मइं-मुझको, मेरे को, मुझे।। 'टा' अर्थ को समझाने के लिये वृत्ति में जो गाथा दी गई है; उसका अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : मया ज्ञातं प्रिय ! विरहितानां कापि धरा भवति विकाले।
केवलं (=परं) मृगाडोकपि तथा तपति यथा दिनकरः क्षयकाले।। अर्थ:-हे प्रियतम ! मेरे से ऐसा समझा गया था कि प्रियतम के वियोग से दुःखित व्यक्तियों के लिये संध्या-काल में शायद कुछ भी सान्त्वना का आधार प्राप्त होता होगा; किन्तु ऐसा नही है; देखो ! चन्द्रमा भी संध्याकाल में उसी प्रकार से उष्णता प्रदान करने वाला प्रतीत हो रहा है; जैसा कि सूर्य उष्णतामय ताप प्रदान करता रहता है।।१।। इस गाथा में 'मया' के स्थान पर 'मई पद रूप का प्रयोग किया गया है। ___ 'ङि' का उदाहरण यों है:- त्वयि मयि द्वयोरपि रण गतयों:-पई मइं बेहिं विरण-गयहिं युद्ध-क्षेत्र मे गये हुए तुझ पर और मुझ पर दोनों ही पर। (पूरी गाथा सूत्र-संख्या ४-३७० में देखो)।। यहाँ पर 'मयि' के स्थान पर 'मई का प्रयोग है।
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