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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 295 शेष प्राकृतवत्।।४-२८६।। शौरसेन्यामिह प्रकरणे यत्कार्यमुक्त ततोन्यच्छोरसेन्यां प्राकृतवदेव भवति।। दीर्घहस्वौ मिथो वृत्तौ (१-४) इत्यारभ्य तो दोनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य (४-२६०) एतस्मात् सूत्रात् प्राग् यानि सूत्राणि एषु यान्युदाहरणानि तेषु मध्ये अमूनि तदवस्थान्येव शौरसेन्यां भवन्ति, अमूनि पुनरेव विधानि भवन्तीति विभागः प्रतिसूत्रं स्वयमभ्यूह्य दर्शनीयः।। यथा। अन्दावेदी। जुवदि जणो। मणसिला। इत्यादि।। __अर्थः- यह सूत्र सर्व-सामान्य रूप से यह बतलाता है कि शौरसेनी भाषा के लगभग सभी नियम प्राकृत भाषा के समान ही होते है।। जो कुछ भी अन्तर परस्पर में है वह अन्तर सूत्र-संख्या ४-२६० से आरम्भ करके सूत्र-संख्या ४-२८५ के अन्तर्गत प्रदर्शित कर दिया गया है और शेष सभी नियम प्राकृत-भाषा के समान ही जानना; तदनुसार सूत्र-संख्या १-४ से प्रारम्भ करके सूत्र-संख्या ४-२५९ तक के विधि-विधानों को शौरसेनी-भाषा के लिये भी कल्पित कर लेना। यों प्रत्येक सूत्र में प्रदर्शित परिवर्तन जैसा प्राकृत-भाषा के लिये वैसा ही शौरसेनी भाषा के लिये भी स्वयमेव समझ लेना चाहिये। शौरसेनी भाषा का मूल आधार प्राकृत भाषा ही है, और इसीलिये संस्कृत भाषा से प्राकृत-भाषा की तुलना करने में जिन नियमों का तथा जिन विधि-विधानों का प्रयोग एवं प्रदर्शन किया जाता है उन्हीं नियमों का तथा उन्ही विधि-विधानों का प्रयोग एवं प्रदर्शन भी शौरसेनी भाषा के लिये किया जा सकता है। सूत्र-संख्या ४-२६० से ४-२८५ तक में वर्णित भिन्नता का स्वरूप स्वयमेव ध्यान में रखना चाहिये। कुछ एक उदाहरण यों हैं:संस्कृत प्राकृत शौरसेनी हिन्दी अन्तर्वेदि:= अन्तावेइअन्तावेदी मध्य की वेदिका। युवति-जनः जुवइ-अणो= जुवदि-जणो= जवान स्त्री-पुरूष। मनः शिला मणसिला मणसिला मैनशील एक उपधातु यों प्राकृत-भाषा के और शौरसेनी भाषा के एक ही जैसे शब्दों में पूर्ण साम्य होते हुए भी जो यत्-किञ्चित् अन्तर दिखलाई पड़ रहा है, उसका समाधान भी सूत्र-संख्या ४-२६० से लगाकर सूत्र-संख्या ४-२८५ तक में वर्णित विधि-विधानों से कर लेना चाहिये। शेष सब कार्य प्राकृत के समान ही जानना।।४-२८६।। इति शौरसेनी-भाषा-वितरण समाप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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