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296 : प्राकृत व्याकरण
अथ मागधी-भाषा व्याकरण प्रारम्भ
अत एत् सौ पुसि मागध्याम्॥४-२८७॥ मागध्यां भाषायां सौ परे अकारस्य एकारो भवति पुसि पुल्लिगे। एष मेषः एषे मेषे॥ एषे पुलिषे। करोमि भदन्त। करेमि भन्ते।। अत इति किम् णिही। कली। गिली।। पुंसीति किम् जल।। यदपि "पोराण मद्ध-मागह-भासा-निययं हवइ सुत्त" इत्यादिनार्षस्य अर्धमागध भाषा नियतत्वमाम्नायि वृद्धस्तदपि प्रायोस्यैव विधान्न वक्ष्यमाण लक्षणस्य।। कयरे आगच्छइ।। से तारिसे दुक्खसहे जिइन्दिए। इत्यादि।।। __ अर्थ:-मागधी भाषा में अकारान्त पुल्लिंग में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में "सु" प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य 'अकार' की 'एकार' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- एष मेष:-एशे मेशे यह भेड़। एषः पुरूषः एशे पुलिशे यह आदमी। करोमि भदन्त-करेमि भन्ते हे पूज्य! मैं करता हूँ। इन उदाहरणों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में और संबोधन के एकवचन में "एकार" की स्थिति स्पष्टतः प्रदर्शित की गई है।
प्रश्नः- 'अकारान्त' में ही प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'एकार' की स्थिति क्यों कही गई है ?
उत्तर:- जो शब्द पुल्लिंग होते हुए भी अकारान्त नहीं है, उनमें प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' के स्थान पर "एकार" की प्राप्ति नहीं पाई जाती है इसलिये अकारान्त के लिये ही ऐसा विधान किया गया है। उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) निधिः-णिही-खजाना (२) करिः कली-हाथी (३) गिरिः-गिली-पहाड़ इत्यादि। इन उदाहरणों से ज्ञात होता है कि ये इकारान्त हैं, इसलिये इनमें प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "सु" के स्थान पर "एकार" की प्राप्ति नहीं हुई है; यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये।
प्रश्न :- पुल्लिंग में 'एकार' की प्राप्ति होती है, ऐसा क्यों कहा गया? ।
उत्तर- जो शब्द अकरांत होते हुये भी पुल्लिंग नहीं है तो उन शब्दों में भी प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' के स्थान पर 'एकार' की प्राप्ति नहीं होगी। जैसे:- जलम् जलं-पानी। इस उदाहरण में "जल" शब्द अकारान्त होते हुए भी पुल्लिग नहीं होकर नपुंसकलिंग वाला है इसलिये इस शब्द में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में "जले" नहीं होकर "जलं" रूप ही बना है। यों अन्य अकारान्त नपुंसकलिंग वाले शब्दों के संबंध में भी यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिये।
आर्षवादी वृद्ध पुरूषों की ऐसी मान्यता है कि "अर्ध मागधी भाषा सुनिश्चित है, अत्यंत पुरानी है और इसलिये इसके नियमों का विधान करने की आवश्यकता नहीं है।। यह बात अपेक्षा विशेष से भले ही ठीक हो, परन्तु इस विषय में हमारा इतना ही निवेदन है कि हम भी प्रायः उन्ही रूपो। का विधान करते हैं और उन्ही के अनुकूल नियमों का निर्धारण करते है, जो कि अर्ध मागधी भाषा के साहित्य में उपलब्ध हैं; अतः पुराणवादियों के मत से प्रतिकूल बात का विधान नहीं किया जा रहा है। जैसे:- कतरः आगच्छति-कयरे आगच्छइ-दो में से कौन आता है? (२) स तादृशः दुःखसहः जितेन्द्रियः-से तारिसे दुक्खसहे जिइन्दिए वह जैसा इन्द्रियों को जीतने वाला है वैसा ही दुःखों को भी सहन करने वाला है। इन उदाहरणों में यह प्रदर्शित किया गया है कि जो पद अकारान्त पुल्लिग वाले हैं उन सब में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सु' प्रत्यय के स्थान पर 'एकार' की ही प्राप्ति प्रदर्शित की गई है; यों 'अर्ध-मागधी' भाषा में उपलब्ध स्वरूप का ही समर्थन किया गया है और इसी की पुष्टि के लिये ही इस सूत्र का निर्माण किया गया है। यों प्राचीन मान्यता को ही संरक्षण प्रदान किया गया है। अतः इसमें विरोध का प्रश्न ही नहीं है।।४-२८७।।
र-सोर्ल-शौ।।४-२८८॥ मागध्यां रेफस्य दन्त्य सकारस्य च स्थाने यथा संख्यं लकारः तालव्य शकारश्च भवति।। ।। नले। कले।। सा हंशे। शुद।। शोभण।। उभयोः शालशे। पुलिशे।।
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