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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित: 297
लहश-वश-नमिल शुल-शिल-विअलिद-मन्दाल-लायिदहियुगे।। वील-यिणे पक्खालदु मम शयलम वय्य-यम्बाल।।१।।
अर्थः-मागधी भाषा में रेफरूप 'रकार' के स्थान पर और दन्त्य 'सकार' के स्थान पर क्रम से 'लकार' और तालव्य 'शकार' की प्राप्ति हो जाती है। उदाहरण इस प्रकार है:- 'रकार' से 'लकार' की प्राप्ति का उदाहरण:नरः=नले-मनुष्य। कर:=कले हाथ। 'सकार' से 'शकार' की प्राप्ति का उदाहरणः- हंसः हंशे-हंस पक्षी। सुतम्-शुदं लड़के को। सोभनम् शोभण-सुन्दर।। यदि एक ही पद में दो 'सकार' आ जाये तो भी उन दोनों 'सकारों के स्थान पर 'शकारों की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- सारसः=शालशे सारस जाति का पक्षी विशेष। पुरूषः-पुलिशे।। मनुष्य। 'पुरूष' उदाहरण से यह भी ज्ञात होता है कि मागधी-भाषा में मूर्धन्य 'षकार' के स्थान पर भी तालव्य 'शकार' की प्राप्ति हो जाया करती है। ___ ऊपर सूत्र की वृत्ति में जो गाथा उद्धृत की गई है उसमें यह बतलाया गया है कि मागधी-भाषा में 'रकार' के स्थान पर 'लकार' की, 'सकार' के स्थान पर 'शकार' की, 'तकार' के स्थान पर 'दकार' की, 'जकार' के स्थान पर 'यकार' की और 'द्य' संयुक्तव्यञ्जन के स्थान पर द्वित्व 'य्य' की क्रम से प्राप्ति हो जाती है तथा प्रथमा विभक्ति में अकारान्त के स्थान पर एकारान्त की आदेश प्राप्ति हो जाती है।
वृत्ति में मागधी-गाथा का संस्कृत-अनुवाद इस प्रकार है:- रभस-वश-नम्र-सूर-शिरो-विगलित मन्दार-राजित-आध्रियुगः।। वीर-जिनः प्रक्षालयतु मम सकलमवद्यजम्बालम्।।१।। ___अर्थः- भक्ति के कारण वेग पूर्वक झुकते हुए देवताओं के मस्तकों से गिरते हुए मन्दार जाति के श्रेष्ठ फूलों से जिनके दोनों चरण शोभायमान हो रहे हैं, ऐसे भगवान् महावीर जिनेश्वर मेरे सम्पूर्ण पाप रूपी मैल का अथवा कीचड़ का प्रक्षालन कर दें अथवा दूर कर दे।।
उपर्युक्त वर्ण-परिवर्तन अथवा वर्ण-आदेश का स्वरूप क्रम से बतला दिया गया है, जो कि ध्यान देने योग्य है।।४-२८८।।
स-षोः संयोगे सोऽग्रीष्मे।।४-२८९।। __ मागध्यां सकार षकारयोः संयोगे वर्तमानयोः सो भवति, ग्रीष्मशब्दे तु न भवति। ऊर्ध्वलोपाद्यपवादः।। (स) पक्खलदि हस्ती। बुहस्पदी। मस्कली। विस्मये।। ष। शुस्कदालुं कस्ट।। विस्नु॥ शस्प-कवले। उस्मा। निस्फल।। धनुस्खण्ड।। अग्रीष्म इति किम् गिम्ह-वाशले।। __ अर्थः-मागधी-भाषा में संयुक्त रूप से रहे हुए हलन्त 'सकार' और हलन्त 'षकार' के स्थान पर हलन्त 'सकार' की प्राप्ति हो जाती है। परन्तु यह नियम 'ग्रीष्म' शब्द में रहे हलन्त 'षकार' के लिये लागू नहीं होती है। यों यह प्राप्त हलन्त 'सकार' ऊपर कहे हुए 'लोप आदि' विधियों की दृष्टि से अपवाद रूप ही समझा जाना चाहिये। हलन्त 'सकार' का उदाहरण इस प्रकार है:- (१) प्रस्खलति हस्ति= पक्खलदि हस्ती-हाथी गिरता है। (२) वृहस्पतिः=बुहस्पदी-देवताओं का गुरू। (३) मस्करी-मस्कली-उपहास। (४) विस्मय विस्मये आश्चर्य। इन उदाहरणों में हलन्त 'सकार' की स्थिति हलन्त रूप में ही रही है। अब हलन्त 'षकार' के उदाहरण यों है:- (१) शुष्कतालुम् शुष्क-दालु-सूखा तालु। (२) कष्टम् कस्टं-तकलीफ़ पीड़ा। (३) विष्णुम्-विस्नु-विष्णु की। (४) राष्प-कवल:-शस्प कवले घास का पास। (५) उष्मा उस्मा गरमी। (६) निष्फलं निस्फले-फलरहित, व्यर्थ। (७) धनुष् खण्डम् धनुस्खण्ड-धनुष का टुकड़ा। इन उदाहरणों में हलन्त 'षकार' को हलन्त 'सकार' की प्राप्ति हुई है। यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये।
प्रश्न:- 'ग्रीष्म' शब्द में रहे हुए हलन्त 'षकार' को हलन्त 'सकार' की प्राप्ति क्यों नहीं हुई हैं ? उत्तरः- चूंकि संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'ग्रीष्म' शब्द का रूपान्तर मागधी भाषा में 'गिम्ह' ही देखा जाता है;
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