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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 373 का गर्व किसका स्थाई रहा है? इसलिये वैसा प्रेम-पत्र भेजा जाय, जो कि तत्काल ही प्रगाढ़ रूप से-निश्चिय रूप से-हृदय को आकर्षित कर सके-हृदय को हिला सके; (ऐसा होने पर वह प्रियतम शीघ्र ही लौट आवेगा) यहाँ पर "गाढम्" के अर्थ में "निच्वटूटु" शब्द लिखा गया है।। ६।। संस्कृत : कुत्र शशधरः कुत्र मकरधरः? कुत्र बी कुत्र मेघः? दूर स्थितानामपि सज्जनानां भवति असाधारणः स्नेहः।। ७॥ हिन्दी:- कहाँ पर (कितनी दूरी पर) चन्द्रमा रहा हुआ है और समुद्र कहाँ पर अवस्थित है? (तो भी समुद्र चन्द्रमा के प्रति ज्वार-भाटा के रूप में अपना प्रेम प्रदर्शित करता है। इसी प्रकार से मयूर पक्षी धरती पर रहता हुआ भी मेघ को (बादल को)-देखकर के अपनी मधुर वाणी अलापने लगता है। इन घटनाओं को देख करके यह कहा जा सकता है। कि अति दूर रहते हुए भी सज्जन पुरूषों का प्रेम परस्पर में असाधारण अर्थात् अलौकिक होता है। इस गाथा में "असाधारण" शब्द के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में “आसड्डलु" शब्द को व्यक्त किया गया है।। ७।। संस्कृत : कुञ्जरः अन्येषु तरूवरेषु कौतुकेन घर्षति हस्तम्।। मनः पुनः एकस्यां सल्लक्यां यदि पृच्छथ परमार्थम्।। ८|| हिन्दी:-हाथी अपनी सूंड को केवल क्रीड़ा वश होकर ही अन्य वृक्षों पर रगड़ता है। यदि तुम सत्य बात ही पूछते हो तो यही है कि उस हाथी का मन तो वास्तव में सिर्फ एक 'सल्लकी' नामक वृक्ष पर ही आकर्षित होता है। इस छंद में संस्कत-पद 'कौतकेन' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'कोडण' लिखा गया है।। ८।। संस्कृत : क्रीड़ा कृता अस्माभिः निश्चयं किं प्रजल्पत।। अनुरक्ताः भक्ताः अस्मान् मा त्यज स्वामिन्॥ ९।। हिन्दी :- हे नाथ ! हमने तो सिर्फ खेल किया था; इसलिये आप ऐसा क्यों कहते हैं? हे स्वामिन्! हम आप से अनुराग रखते हैं और आप के भुक्त है; इसलिये हे दीन दलाल! हमारा परित्याग नहीं करे।। यहाँ पर 'क्रीड़ा' के स्थान पर 'खेड्ड-खेड्डयं' शब्द व्यक्त किया गया है।। ९।। संस्कृत : सरिद्भिः न सरोभिः, न सरावरैः, नापि उद्यानवनैः।। देशाः रम्याः भवन्ति, मूर्ख ! निवसद्भिः सुजनैः॥१०॥ हिन्दी:-अरे बेवकुफ ! न तो नदियों से, न झीलों से, न तालाबों से और न सुन्दर सुन्दर वनों से अथवा बगीचों से ही देश रमणीय होते हैं; वे (देश) तो केवल सज्जन पुरूषों के निवास करने से ही सुन्दर और रमणीय होते हैं। इस गाथा में 'रम्य' शब्द के स्थान पर 'रवण्ण' शब्द को प्रस्तावित किया गया है।।१०।। संस्कृत : हृदय ! त्वया एतद् उक्तं मम अग्रतः शतवारम्॥ स्फुटिष्यामि प्रियेण प्रवसता (सह) अहं भण्ड! अद्भुतसार।।११।। हिन्दी :- हे हृदय ! तू निर्लज्ज है और आश्चर्यमय ढंग से तेरी बनावट हुई है; क्योंकि तूने मेरे आगे सैंकड़ों बार यह बात कही है कि जब प्रियतम विदेश में जाने लगेंगे तब मैं अपने आपको विदीर्ण कर दूंगा अर्थात् फट जाऊंगा। (प्रियतम के वियोग में हृदय टुकड़े-टुकड़े के रूप में फट जायगा। ऐसी कल्पनाऐं सैंकड़ों बार नायिका के हृदय में उत्पन्न हई है। परन्त फिर भी समय आने पर हृदय विदीर्ण नहीं हआ है: इस पर हृदय को 'भ अद्भुतसार विशेषणों से अलंकृत किया गया है)। इस गाथा में अद्भुत' की जगह पर 'ढक्करि' शब्द को तद्-अर्थक स्थान दिया गया है।।११।। संस्कृत : हे सखि ! मा पिधेहि अलीकम् हे हेल्लि ! म भङ्घहि आलु-हे सहेली ! तू झुठ मत बोल अथवा अपराध को मत ढोंक। यहाँ पर 'सखी' अर्थ में 'हेल्लि' शब्द का प्रयोग किया गया है। संस्कृत : एका कुटी पञ्चभिः तेषां पञ्चानामपि, पृथक्-पृथक्-बुद्धिः।। भगिनि ! तद् गृह कथय, कथं नन्दतु यत्र कुटुम्बं आत्मच्छन्दकम्।।१२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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