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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 117 अमुष्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अयम्मि, इयम्मि और अमुम्मि होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'अदस्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'स्' का लोप; ३-८९ से शेष सम्पूर्ण रूप 'अद' के स्थान पर 'आगे' सप्तमी एकवचन बोधक प्रत्यय 'म्मि' का सद्भाव होने से क्रम से 'अय' ओर 'इय' अंग रूपों की वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से प्रथम और द्वितीय रूप अयम्मि और इयम्मि सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय रूप-(अमुष्मिन्-) अमुम्मि की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-८८ में की गई है। ३-८९।।
युष्मद स्तं तुं तुवं तुह तुमं सिना ॥३-९०॥ युष्मदः सिना सह तं तु तुवं तुह तुम इत्येते पञ्चादेशा भवन्ति।। तं तु तुवं तुह तुमं ट्ठिो।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि', की संयोजना होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर आदेश-प्राप्त संस्कृत रूप 'त्वम्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से पांच रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे पांच रूप क्रम से इस प्रकार हैं:- (त्वम्=) तं, तुं, तुवं, तुह और तुम। उदाहरण इस प्रकार हैं:- त्वम् दृष्टः=तं, (अथवा) तुं' (अथवा) तुवं, (अथवा) तुह (अथवा) तुमं दिट्ठो अर्थात् तू देखा गया। ___ त्वम् संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनामरूप है। इसके प्राकृत रूप तं, तुं, तुवं, तुह और तुम' होते हैं। इन पांचों में सूत्र-संख्या ३-९० से त्वम्' के स्थान पर इन पांचों रूपों की क्रम से आदेश प्राप्ति होकर ये पांच रूप . क्रम से तं, तुं, तुवं, तुह और तुम सिद्ध हो जाते हैं। __ दृष्टः संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप दिवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-३४ से 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से आदेश-प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ्ठ' की प्राप्ति; २-९० से आदेश-प्राप्त पूर्व'' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग 'दिट्ट' में अकारान्त पुल्लिंग में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर दिवो रूप सिद्ध हो जाता है।।३-९०॥
भे तुब्भे तुज्झ तुम्ह तुम्हे उव्हे जसा।। ३-९१॥ - युष्मदो जसा सह भे तुब्भे तुज्झ तुम्ह तुम्हे उय्हे इत्येते षडादेशा भवन्ति।। भे तुब्भे तुज्झ तुम्ह तुम्हे उय्हे चिट्ठह। ब्मो म्हज्झौ वा (३-१०४) इति वचनात् तुम्हे। तुज्झे एवं चाष्टरूप्यम्॥ ___ अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' की संयोजना होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय दोनों के स्थान पर आदेश प्राप्त संस्कृत रूप 'यूयम्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से छह रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे छह रूप क्रम से इस प्रकार हैं:- भे, तुब्भे, तुज्झ, तुम्ह, तुम्हे और उरहे। उदाहरण इस प्रकार है:-यूयम् तिष्ठथ भे, (अथवा) तुब्भे, (अथवा) तुज्झ, (अथवा) तुम्ह, (अथवा) तुम्हे और (अथवा) उव्हे चिट्ठह अर्थात् तुम खड़े होते हो। सूत्र-संख्या ३-१०४ के विधान से आदेश-प्राप्त द्वितीय रूप 'तुब्भे' में स्थित 'ब्भ' अंश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से म्ह' और 'ज्झ' की क्रम से आदेश प्राप्ति हुआ करती है; तदनुसार उक्त छह रूपों के अतिरिक्त दो रूप और इस प्रकार होते हैं:- 'तुम्हे और तुझे; यों यूयम्' के स्थान पर प्राकृत में कुल आठ रूपों की क्रम से (एवं वैकल्पिक रूप से) आदेश प्राप्ति हुआ करती है।
यूयम् संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप आठ होते है:- भे, तुब्भे, तुज्झ, तुम्ह, तुम्हे, उव्हे, तुम्हे और तुज्झ। इनमें से प्रथम छह रूपों में सूत्र-संख्या ३-९१ से सम्पूर्ण संस्कृत रूप 'यूयम्' के स्थान पर इन छह रूपों की आदेश प्राप्ति होकर ये छह रूप-भे, तुब्भे, तुज्झ, तुम्ह, तुम्हे, उव्हे और उव्हे सिद्ध हो जाते हैं।
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