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________________ 10 : प्राकृत व्याकरण दधिभिः- संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप दहीहिं होता है। इनमें सूत्र-संख्या १-१५७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और शेष 'साधनिक सूत्र-संख्या ३-१६ एवं ३-७ से 'गिरीहिं' के समान ही होकर दहीहिं रूप सिद्ध हो जाता है। तरुभिः- संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप तरूहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ से और ३-७ से 'गिरीहिं के समान ही साधनिक की प्राप्ति होकर तरूहिं रूप सिद्ध हो जाता है। धेनुभि :- संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृतरूप धेहि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष साधनिका सूत्र-संख्या ३-१६ एवं ३-७ से 'गिरीहिं के समान ही होकर धेहिं रूप सिद्ध हो जाता है। मधुभिः- संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप 'महूहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और शेष साधनिका ३-१६ एवं ३-७ से 'गिरीहिं के समान ही होकर महहिं रूप सिद्ध हो जाता है। कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है। गिरिभ्यः- संस्कृत पंचम्यान्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप गिरीओ, गिरीहिन्तो और गिरीसुन्तो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१६ से मूल 'गिरि' शब्दान्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और ३-९ से पंचमी विभक्तिबोधक प्रत्यय 'ओ, हिन्तो और सुन्तो' की क्रमिक प्राप्ति होकर क्रम से गिरीओ, गिरीहिन्तो ओर गिरीसुन्तो की सिद्धि हो जाती है। बुद्धिभ्यः- संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धीओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ और ३-९ से 'गिरीओ' के समान ही साधनिका की प्राप्ति होकर बुद्धीओ रूप सिद्ध हो जाता है। __दधिभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप दहीओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह्' ३-१६ तथा ३-९ से 'गिरीओ के समान ही साधनिका की प्राप्ति होकर दहीओ रूप सिद्ध हो जाता है। तरुभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप तरूआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ और ३-९ से 'गिरीओ के समान ही साधनिका की प्राप्ति होकर तरूओ रूप सिद्ध हो जाता है। धेनुभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप घेणूओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१६ तथा ३-९ से 'गिरीओ' के समान ही शेष साधनिका की प्राप्ति होकर धेणूओ रूप सिद्ध हो जाता है। मधुभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप महूओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-१६ तथा ३-९ से 'गिरीओ के समान ही शेष साधनिका की प्राप्ति होकर महूओ रूप सिद्ध हो जाता है। आगओ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२६८ में की गई है। गिरिषु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरीसु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ से द्वितीय हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर गिरीसु रूप सिद्ध हो जाता है। बुद्धिषु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धिस होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ से 'इ' के स्थान पर 'ई' की प्राप्त और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर बुद्धिसु रूप सिद्ध हो जाता है। दधिषु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप दहीस होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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