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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 11 स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-१६ से 'इ' के स्थान पर 'ई' की प्राप्ति और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर दहीसु रूप सिद्ध हो जाता है। __ तरूषु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप तरूसु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ से प्रथम 'उ' के स्थान पर दीर्घ 'ऊ की प्राप्ति और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर तरूसु रूप सिद्ध हो जाता है।
धेनुषुः संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप धेणूसु होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-१६ से प्रथम 'उ' के स्थान पर दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर धेणूसु रूप सिद्ध हो जाता है। __मधुषुः- संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप महसु होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-१६ से प्रथम 'उ' के स्थान पर दीर्घ 'ऊ की प्राप्ति और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर महसु रूप सिद्ध हो जाता है।
स्थितम्:- संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप ठिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१६ से 'स्था' के स्थान पर 'ठा' का आदेश; ३-१५६ से प्राप्त रूप 'ठा' में स्थित अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से कृदन्तीय विशेषणात्मक प्रत्यय 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर ठिअंरूप सिद्ध हो जाता है।
द्विज-भूमिषुः- संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत-रूप दिअ-भूमिसु होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'व्' का लोप; १-१७७ से 'ज' का लोप और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर दिअ-भूमिसु रूप सिद्ध हो जाता है।
दान-जलार्दीकृतानिः- संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप दाण-जलोल्लि-आइं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-८२ से 'आर्दी' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; १-१० से 'जल' के 'ल' में स्थित अन्त्य 'अ' का लोप; २-७९ से रेफ रूप 'र' को लोप; २-७७ से द्वितीय 'द्' का लोप; १-२५४ से शेष 'र' के स्थान पर 'ल' का आदेश; २-८९ से आदेश प्राप्त 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १-१२६ से ऋ के स्थान पर 'अ की प्राप्ति, १-१७७ 'क्' और 'त्' का लोप, १-१० से लुप्त 'क्' में से शेष रहे हुए 'अ' का 'आ' आ जाने से लोप अथवा १-५ से 'अ' के साथ में 'आ' की सधि होकर दोनों के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; और ३-२६ से प्रथमा या द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के संस्कृत प्रत्यय 'नि' के स्थान पर प्राकृत में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दाण-जलोल्लिआई रूप सिद्ध हो जाता है।
वच्छेहिं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-७ में की गई है। वच्छेसुन्तो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-९ में की गई है। वच्छेसु रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१५ में की गई है। गिरिं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।
तरुम् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप तरुं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-५ से द्वितीय विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' के अनुस्वार होकर तरूं रूपसिद्ध हो जाता है। पेच्छ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२ में की गई है।।३-१६।।
चतुरो वा ॥३-१७॥ चतुर उदन्तस्य भिस् भ्यस्-सुप्सु परेषु दीर्घो वा भवति।। चऊहि। चउहि। चऊओ चउओ। चऊसु चउसु।। अर्थः-'चतुर' संस्कृत शब्द के प्राकृत-रूपान्तर 'चउ' में तृतीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'भिस्' के ओदश-प्राप्त
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