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________________ 12 : प्राकृत व्याकरण प्रत्यय 'हि हिँ और हिं' की प्राप्ति होने पर; पंचमी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'भ्यस्' के आदेश प्राप्त प्रत्यय 'हि' हिन्तो, सुन्तो' आदि की प्राप्ति होने पर और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'सुप' के आदेश प्राप्त प्रत्यय 'सु' की प्राप्ति होने पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- चतुर्भिः=चऊहि अथवा चउहि; चतुर्य-चऊओ अथवा चउओ और चतुर्यु-चऊसु अथवा चउसु। चतुर्भिः- संस्कृत तृतीयान्त संख्यावाचक बहुवचन विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चऊहि और चउहि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'चतुर' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-१७ से शेष 'उ' को वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति; और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय "भिस्' के स्थान पर आदेश-प्राप्त 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप चऊहि और चउहि सिद्ध हो जाते हैं। __ चतुर्यः- संस्कृत पञ्चम्यन्त संख्यावाचक बहुवचन-विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चऊओ और चउआ होते हैं। इनमें 'चऊ' और 'चउ' तक की साधनिका इसी सूत्र में कृत उपर्युक्त रीति अनुसार; और ३-९ से पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर आदेश-प्राप्त 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप चऊओ और चउओ सिद्ध हो जाते हैं। ___ चतुर्यु संस्कृत सप्तम्यन्त संख्यावाचक बहुवचन विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चऊसु और चउस होते हैं। इनमें 'चऊ' और 'चउ' तक की साधनिका इसी सूत्र में उपर्युक्त रीति अनुसार और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप चऊसु और चउसु सिद्ध हो जाते हैं ॥३-१७|| लुप्ते शसि ॥३-१८॥ इदुतोः शसि लुप्ते दीर्घा भवति ।। गिरी । बुद्धी । तरू । धेणू पेच्छ ।। लुप्त इति किम्। गिरिणो। तरुणो पेच्छ। इदुत इत्येव। वच्छे पेच्छ।। जस्-शस् (३-१२) इत्यादिना शसि दीर्घस्य लक्ष्यानुरोधार्थो योगः लुप्त इति तु णवि प्रति प्रसवार्थशङ्कानिवृत्यर्थम्।। ___अर्थः- प्राकृत इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग और स्त्रीलिंग शब्दों में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर एवं सूत्र-संख्या ३-४ के विधान से प्राप्त प्रत्यय 'शस्' का लोप होने पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' अथवा 'उ' के स्थान पर दीर्घ 'ई' अथवा दीर्घ 'ऊ की प्राप्ति यथाक्रम होती है। जैसे:- गिरीन्-गिरी अर्थात् पहाड़ों को; बुद्धी:-बुद्धी अर्थात् बुद्धियों को; तरून् तरू अर्थात्, वृक्षों को; धेनूः पश्य धेणू पेच्छ अर्थात् गायों को देखो। इन उदाहरणों में अन्त्य हस्व स्वर को 'शस्' प्रत्यय का लोप होने से दीर्घता प्राप्त हुई है; यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिए। . प्रश्न:- 'शस्' प्रत्यय का लोप होने पर ही अन्त्य हस्व स्वर को दीर्घता प्राप्त होती है, ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तरः- हस्व इकारान्त अथवा उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में सूत्र-संख्या ३-२२ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति भी हुआ करती है; तदनुसार यदि 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होती है तो ऐसी अवस्था में अन्त्य हस्व स्वर 'इ' अथवा 'उ' को दीर्घता की प्राप्ति नही होगी; इसलिए 'लुप्त' शब्द का उल्लेख किया गया है सारांश यह है कि दीर्घता की प्राप्ति 'शस्' प्रत्यय की लोपावस्था पर निर्भर है; यदि 'शस्' के स्थान पर आदेश प्राप्त 'णो' प्रत्यय प्राप्त हो जाता है तो दीर्घता का भी अभाव हो जाता है। जैसे:- गिरीन्-गिरिणो अर्थात् पहाड़ों को और तरून् पश्य-तरुणो (अर्थात् वृक्षों को;) पेच्छ-देखो। प्रश्नः- इकारान्त अथवा उकारान्त शब्दों में ही 'शस' प्रत्यय का लोप होने पर अन्त्य स्वर को दीर्घता की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तर:- अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में भी द्वितीया-विभक्ति-बोधक प्रत्यय 'शस्' का सूत्र-संख्या ३-४ के विधान से लोप होता है; परन्तु 'शस्' प्रत्यय का लोप होने पर भी अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ 'आ' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से ही होती है तथा सूत्र-संख्या ३-१४ से अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति भी हुआ करती है। इस प्रकार 'शस्' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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