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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 317 वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में केवल दो प्रत्यय ही होते है; जो कि इस प्रकार हैं:- (१) 'उ' और (२) 'लुक'। यों 'ओ' प्रत्यय का निषेध करने के लिये 'पुसि' ऐसे पद का मूल-सूत्र में प्रदर्शन किया गया। उदाहरण के रूप में जो दूसरी गाथा उद्धृत की गई है, उसमें अगुं, मिलिउ, सुरउ और समन्तु' आदि शब्द प्रथमा विभक्ति के एकवचन में होने पर भी ये शब्द अकारान्त नपुंसकलिंग वाले हैं और इसीलिये इनमें 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होकर 'उ' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। यों अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये। गाथा का संस्कृत-अनुवाद हिन्दी सहित इस प्रकार है:संस्कृत : अंगैः अंग न मिलितं, सखि ! अधरेण अधरः न प्राप्तः।। प्रियस्य पष्यन्त्याः मुख-कमलं, एवं सुरतं समाप्तम्॥ २॥ हिन्दी:- हे सखि! अंगों से अंग भी नहीं मिल पाये थे और होठ से होठ भी नहीं मिला था; तथा प्रियतम के मुख-कमल को (बराबर) देख भी नहीं पाई थी कि (इतने में ही) हमारा रति-क्रीड़ा नामक खेल समाप्त हो गया।।४-३३२।। ॥ एट्रि ४-३३३।। अपभ्रंशे अकारस्य टायामकारो भवति।। जे महु दिणणा दिअहडा दइएं पवसन्तेण।। ताण गणन्तिएँ अंगुलिउ जज्जरिआउ नहेण।।१।। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य 'टा' के स्थान पर (वैकल्पिक रूप से) 'एँ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। जैसा कि गाथा में आये हुए पद 'दइएँ' से विदित होता है। दयितेन-दइएँ पतिसे। मूल गाथा का संस्कृत-अनुवाद पूर्वक हिन्दी अर्थ इस प्रकार से है:संस्कृत : ये मम दत्ताः दिवसः दयितेन प्रवसता।। तान् गणयन्त्याः (मम) अंगुल्यः जर्जरिताः नखेन।। __ हिन्दीः-विदेश जाते हुए प्रियतम पतिदेव ने (पुनः लौट आने के लिये) मुझे जितने दिनों की बात कही थी; उन दिनों को नख से गिनते हुए (मेरी) अंगुलियाँ ही घिस गई है; (परन्तु पतिदेव विदेश से नहीं लौटे हैं)।।४-३३३।। ङि नेच्च।।४-३३४॥ अपभ्रंशे अकारस्य डिना सह इकार एकारश्च भवतः।। सायरू उप्परि तणु धरइ, तलि धल्लइ रयणाई।। सामि सुभिच्चु विपरिहरइ, संभाणेइ खलाई।।१।। तले धल्लइ। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "डि" के स्थान पर "इकार" और "एकार" प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। ऐसा होने पर अकारान्त शब्दों के अन्त में रहे हुए "अ" स्वर का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् शेष व्यञ्जनान्त शब्द में "इकार" की संयोजन की जाती है। जैसा कि गाथा में दिये गये पद पद "तलि'='तले" से जाना जा सकता है। इस "तालि' में सप्तमी बोधक प्रत्यय "इकार'' की प्राप्ति हुई है। गाथा का संस्कृत और हिन्दी भाषान्तर क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : सागरः उपरि तृणानि धरति, तले क्षिपति रत्नानि।। स्वामी सुभृत्यमपि परिहरति, संमानयति खलान्।। हिन्दी:-समुद्र घास आदि तिनकों को तो ऊपर सतह पर धारण करता है और बहुमूल्य रत्नों को ठेठ नीचे पैंदे में रखता है। (तदनुसार यह सत्य ही है कि) स्वामी अच्छे सेवकों को तो त्याग देता है और दुष्ट (सेवकों) का सम्मान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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