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________________ 316 : प्राकृत व्याकरण स्यमोरस्योत्।।४-३३१।। अपभ्रंशे अकारस्य स्यमोः परयोः उकारो भवति।। दह मुहु भवण-भयंकरू तोसिअसंकरू णिग्गउ रह-वरि चडिअउ। चअमुहु छंमुहु झाइ वि एक्काहिं लाइ विणावइ दइवे घड़िअउ।।१।। अर्थः-अपभ्रंश-भाषा में अकारान्त शब्दों में प्रथमा विभक्ति और द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'सि तथा अम्' प्रत्ययों के स्थान पर 'उ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है। यह विधान अकारान्त पुल्लिंग और अकारान्त नपुंसकलिंग वाले सभी शब्दों के लिये जानना चाहिए। उदाहरण के लिये वृत्ति में जो गाथा उद्धृत की गई है उसमें 'दहमुह, भयंकरू, संकरू, णिग्गउ, चडिअउ और घडिअउ' शब्दों में प्रथमा-विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'उ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति की गई है। इसी प्रकार 'चहुमुहु और छंमुहु' पदों में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'उ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति का सद्भाव प्रदर्शित किया गया है। यों अन्यत्र भी प्रथमा-द्वितीया के एकवचन में समझ लेना चाहिये। उक्त गाथा का संस्कृत तथा हिन्दी भाषान्तर यों जानना चाहिये:संस्कृत : दशमुखः भुवन-भयंकरः तोषित शंकरः, निर्गत रथवरे आरूढः।। चतुर्मुखं षणमुखंध्यात्वा एकस्मिन् लगित्वा इवदेवेन घटितः।। अर्थः- संसार को भयंकर प्रतीत होने वाला और जिसने महादेव-शंकर को (अपनी तपस्या से) संतुष्ट किया था, ऐसा दशमुख वाला रावण श्रेष्ठ रथ पर चढ़ा हुआ निकला था। चार मुंह वाले ब्रह्माजी का और छह मुख वाले कार्तिकेयजी का ध्यान करके (मानो उनकी कृपा से उन दोनों से दश मुखों की प्राप्ति की हो, इस रीति से) दैव ने-(भाग्य ने एक ही व्यक्ति के दश मुखों का) निर्माण कर दिया है, यों वह प्रतीत हो रहा था।।४-३३१।। सौ पस्योद्वा॥४-३३२॥ अपभ्रंशे पुल्लिगे वर्तमानस्य नाम्नोकारस्य सौ परे ओकारो वा भवति।। अगलिअ-नेह-निवट्टाहं, जोअण-लक्खु वि जाउ। वरिस-सएण वि जो विलइ; सहि! साक्खहँ सो ठाउ।।१।। पुंसीति किं? अंगहिँ अंगु न मिलिउ, हलि ! अहरे अहरू न पत्तु॥ पिअ जो अन्तिहे मुह-कमलु एम्बइ सुरउ समत्तु।। २।। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर विकल्प से 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसा कि उपरोक्त गाथा में 'जो' और 'सो' सर्वमान-रूपों में देखा जा सकता है। यों अपभ्रंश भाषा में अकारन्त पुल्लिग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में तीन प्रत्यय होते हैं, जो कि इस प्रकार है:- (१) 'उ' (४-३३१), (२) 'ओ' (४-४३२) और (३) 'लुक' (४-३४४)। उपरोक्त गाथा का संस्कृत में और हिन्दी में रूपान्तर निम्न प्रकार से है:संस्कृत : अगलितस्नेह-निर्वृत्तानां, योजनलक्षमपि जायताम्॥ वर्षशतेनापि यः मिलति, सखि ! सौख्यानां स स्थानम्॥१॥ अर्थ:-जिनका परस्पर में प्रेम नहीं टूटा है और यदि वह अखंड है तो चाहे वे (प्रेमी) लाख योजन भी दूर चले जाय; तो भी कोई चिन्ता की बात नहीं है, क्योंकि जब कभी चाहे सौ वर्षों में भी उनका मिलना होता है; तो भी है सखि ! वह (मिलना) सुखों का ही स्थान होता है। प्रश्न:- मूल सूत्र में 'पुल्लिंग में ही ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तर:- अकारान्त में नपुंसकलिंग वाले भी शब्द होते हैं; और उनमें प्रथमा विभक्ति के एक वचन में "ओ" प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है; इसलिये “अकारन्त पुल्लिग' शब्द का उल्लेख किया गया है। अकारान्त नपुंसकलिंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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