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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 315
अर्थः-अपभ्रश भाषा में संज्ञा शब्दों में विभक्ति वाचक प्रत्यय 'सि, जस्, शस्' आदि जोडने के पूर्व प्राप्त शब्दों में अन्त्य स्वरों के स्थान पर प्रायः हस्व की जगह पर दीर्घ स्वर की प्राप्ति हो जाती है दीर्घ स्वर के स्थान पर हस्व स्वर हो जाया करता है। जैसे कि उदाहरण-रूप में उपरोक्त गाथाओं में प्रदर्शित किया गया है। इनकी क्रमिक विवेचना इस प्रकार है:
(१) प्रथम गाथा में पुल्लिग में प्रथमा विभक्ति के वचन में 'लुक' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'ढोल्ल और सामल' यों आकारान्त होना चाहिये था; जबकि इन्हें 'ढोल्ला और सामला' के रूप में लिखकर अकारान्त को आकारान्त कर दिया गया है। इस प्रकार से 'घृणा और सुवण्णरेहा' स्त्रीलिंगवाचक शब्दों में भी 'लुक' प्रत्यय की प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्ति होने पर भी इन पदों को अकारान्त कर दिया गया है और यों 'धण' तथा 'सुवण्ण-रेह' लिख दिया गया है। गाथा का संस्कृत-अनुवाद और हिन्दी-भाषान्तर निम्न प्रकार से हैं:संस्कृत : विटः श्यामलः धन्या चम्पक-वर्णा।।
__ इव सुवर्ण-रेखा कष-पट्टके दत्ता।।१।। अर्थः- नायक तो श्याम वर्ण (काले रंग) वाला है और नायिका चम्पक वर्ण (स्वर्ण जैसे रंग) वाले चम्पक-फुल के समान है।। यों इन दोनों की जोड़ी ऐसी मालुम होती है कि-मानो सोना परखने के लिये घर्षण के काम में ली जाने वाली काली कसौटी पर 'सोने की रेखा' खीचं दी गई है।।१।।
(२) दूसरी गाथा में 'ढोल्ल' के स्थान पर 'ढोल्ला'; 'वारियों के स्थान पर वारिया'; 'दोहु के जगह पर दीहा और निदाए'-नहीं लिख कर 'निद्दए' लिखा गया है। इस गाथां को संस्कृत तथा हिन्दी रूपान्तर निम्न प्रकार से है। संस्कृत : विट! मया त्वं वारितः, मा कुरू दीर्घ मानम्।।
निद्रया गमिष्यति रात्रिः, शीघ्रं भवति विभातम्।। २।। अर्थः- हे नायक! (तू मुर्ख है), मैनें तुझे रोक दिया था लंबे समय तक अभिमान मत कर; (नायिका से शीघ्र प्रसन्न हो जा) (क्योंकि) निद्रा ही निद्रा में रात्रि व्यतित हो जायेगी और शीघ्र ही सूर्यादय हो जायेगा। (पीछे तुझे पछताना पड़ेगा)।।२।।
(३) तीसरी गाथा में समझाया गया है कि स्त्रीलिंग शब्दों में भी विभक्ति-वाचक प्रत्ययों के पहले अन्त्य स्वरों में परिर्वतन हो जाता है। जैसा कि; 'भणिय, दिट्ठि, भल्लि और पइट्ठि' में देखा जा सकता है। इसका संस्कृत-पूर्वक हिन्दी अनुवाद इस प्रकार से हैं:संस्कृत : पुत्रि! मया भणिता, त्वं मा कुरू वक्रां द्दष्टिम्।।
पुत्रि! सकर्णा भल्लि र्यथा, मारयति हृदये प्रविष्टा।। ३॥ हिन्दी:-हे बेटी! मैंने तुझ से कहा था कि-'तू टेढ़ी नजर से (कटाक्ष पूर्वक दृष्टि से) से मत देख। क्योंकि हे पुत्री! तेरी यह वक्र द्दष्टि हृदय में प्रविष्ट होकर इस प्रकार आघात करती है जिस प्रकार की तेज धार वाला और तेज नोक वाला भाला हृदय में प्रवेश करके आघात करता है। (४) चौथी गाथा में कहा गया है कि प्रथमा के बहुवचन में भी पुल्लिंग में दीर्घ स्वर के स्थान पर हस्व स्वर की प्राप्ति हो जाती है। जैसा कि 'खग्गा' के स्थान पर 'खग्ग' ही लिख दिया गया हो। गाथा का संस्कृत अनुवाद निम्न प्रकार से हैं:संस्कृत : एते ते अश्वाः, एषा स्थली, एते ते निशिताः खड्गाः।
अत्र मनुष्यत्व ज्ञायते, यः नापि वल्गां वालयति।। अर्थः- ये वे ही घोड़े है, यह वही रणभूमि है और ये वे ही तेज धार वाली तलवारें हैं और यहां पर ही मनुष्यत्व विदित हो रहा है; क्योंकि ये (योद्धा) (यहां पर) भय खाकर अपने घोड़ो की लगामें नहीं फेरा करते हैं, अर्थात् पीठ दिखा कर रण- भुमी से भाग जाना ये स्पष्ट रूप से कायरता समझते है। अतएव वास्तव में ये ही वीर है। वृत्ति में ग्रंथाकार कहते हैं कि यों अन्य उदाहरणों की कल्पनाएं अन्य विभक्तियों में पाठक स्वयमेव कर ले।।४-३३०।।
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