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________________ 318 : प्राकृत व्याकरण करता है। यहाँ पर 'तले' पद के स्थान पर अपभ्रंश में 'तलि' पद का प्रयोग किया गया है। 'ए' कार पक्ष में 'तले' भी होता है।।४-३३४।। भिस्येद्वा॥४-३३५॥ अपभ्रंशे अकारस्य भिसि परे एकारो वा भवति।। गुणहिँ न संपइ कित्ति पर फल लिहिआ भुञ्जन्ति।। केसरि न लहइ बोड्डिअ, वि गय लक्खेहिं घेप्पन्ति।।१।। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में अकारन्त शब्दों में तृतीया बहुवचन बोधक प्रत्यय 'भिस् हि हि हिँ' के परे रहने पर उन अकारान्त शब्दों में अन्त्य वर्ण 'अ' कार के स्थान पर विकल्प से 'ए' कार की प्राप्ति होती है। जैसा कि गाथा में आये हुए पद 'लक्खेहिं से जाना जा सकता है। द्वितीय पद 'गुणहिँ में अन्त्य अकार को 'एकार' की प्राप्ति नहीं हुई है। यों दोनों प्रकार की स्थिति को जान लेना चाहिये। उक्त गाथा का संस्कृत और हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : गुणैः न संपत्, कीर्तिः परं फलानि लिखितानि भुंजन्ति। केसरी कपर्दिकामपि न लभते, गजाः लक्षैः गृह्यन्ते।। हिन्दी:-गुणों से केवल कीर्ति मिलती है, न कि धन-संपत्ति। मनुष्य उन्हीं फलों को भोगते हैं, जो कि भाग्य द्वारा लिखे हुए होते हैं। केशरीसिंह गुण-सम्पन्न होते हुए भी उसको कोई भी एक कोड़ी से भी खरीदने को तैयार नहीं होता है; जबकि हाथियों को लाख रूपये देकर भी लोग खरीद लिया करते है।।४-३३५।। से है-ह॥४-३३६॥ अस्येति पञ्चम्यन्तं विपरिणम्यते। अपभ्रंशे अकारत् परस्य उसे हे-हू इत्यादेशो भवतः।। वच्छहे गृण्हइ फलइँ, जणु कडु-पल्लव वज्जेइ।। तो वि महहुमु सुअणु जिवं ते उच्छगि धरेइ।।१।। वच्छहु गृण्हइ।। अर्थः-प्राकृत-भाषा में जैसे पचमी विभक्ति के एकवचन में 'त्तो, आओ, आउ, आहि, आहिन्तो और लुक्' प्रत्यय होते हैं; वे प्रत्यय अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों के लिये उक्त विभक्ति में नहीं हुआ करते हैं; इसी अर्थ को व्यक्त करने के लिये ग्रंथकार ने वृत्ति में 'विपरिणम्यते' पद का निर्माण किया है। अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'उसि' के स्थान पर 'हे और हू', ऐसे दो प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसा कि गाथा में 'वच्छहे' पद से ज्ञात होता है। तदनुसार 'वृक्षात्' पद का अनुवाद अपभ्रंश भाषा में 'वच्छहे और वच्छहू' दोनों होगा। इसलिये 'वच्छहु गृण्हइ' पदों का समावेश गाथा के बाद भी कर दिया गया है। यहाँ पर 'वच्छहु' पद में 'हू' प्रत्यय को हस्व लिखने का कारण यह है कि आगे पद 'गृण्हइ' में आदि अक्षर संयुक्त होता हुआ 'हू' के आगे आया हुआ है, इसलिये सूत्र-संख्या १-८४ से 'हू' के दीर्घ स्वर 'ऊ' को हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति हुई है। गाथा का संस्कृत तथा हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : वृक्षात् गृहाति फलानि जनः, कटु पल्ल्वान वर्जयति।। तथापि महाद्रुमः सुजन इव तान् उत्संगे धरति।।१।। अर्थः-मनुष्य वृक्ष से (मधुर) फलों को तो ग्रहण कर लेता है किन्तु उसी वृक्ष के कडुवे पत्तों को छोड़ देता है। तो भी वह माह वृक्ष उन पत्तों को सज्जन पुरूषों के समान अपनी गोद में ही धारण किये रहता है। जैसे सज्जन पुरूष कटु अथवा मीठी सभी बातों को सहन करते हैं; वैसे ही वृक्ष भी सभी परिस्थितियों को सहर्ष सहन करता है।।४-३३६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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