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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 319 भ्यसो हु।।४-३३७॥ अपभ्रंशे अकारात् परस्य भ्यसः पंचमी बहुवचनस्य हुं इत्यादेशौ भवति।। दुरुड्डाणे पडिउ खलु अप्पणु जणु मारेइ।। जिह गिरि-सिंह हुँ पडिअ सिल अन्नु वि चूरू करेइ।।१।। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों में पंचमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर 'हु प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। जैसा कि गाथा में आये हुए पद 'गिरि-सिंगहुँ-गिरि-श्रृगेभ्यः पहाड़ की चोटियों से जाना जा सकता है। उक्त गाथा का संस्कृत-हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार है :संस्कृत : दूरोड्डाणेन पतित खलः आत्मानं जनं (च) मारयति।। यथा गिरि-श्रृंगेभ्यः पतिता शिला अन्यदपि चूर्णी कराति।। अर्थः-एक दुष्ट आदमी जब दूर से ऊंचाई से छलांग लगाता है तो खुद भी मरता है और दूसरों को भी मारता है; जैसे कि पहाड़ की चोडियों से गिरी हुई बड़ी शिला अपने भी टुकड़े कर डालती है और (उसकी चोट में आये हुए) अन्य का भी विनाश कर देती है।।४-३३७।। उसः सु-हो-स्सवः।।४-३३८।। अपभ्रंशे अकारात् परस्य ङ सः स्थाने सु, हो, स्सु इति त्रय आदेशा भवन्ति।। जो गुण गोवइ अपणा, पयडा करइ परस्सु॥ तसु हऊँ कलि-जुगि दुल्लहहो बलि किज्जउं सुअणस्सु।।१।। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों के षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर 'सु, हो और 'स्सु' ऐसे तीन प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। सूत्र-संख्या ४-३४५ से इसी विभक्ति में 'लोप' रूप अवस्था की प्राप्ति भी हो सकती है। इनके उदाहरण गाथानुसार क्रम से इस प्रकार हैं:-(१) परस्सु-परस्य-दूसरों के; (२) तसु-तस्य उसके; (३) दुल्लहहो दुर्लभस्य दुर्लभ के और (४) सुअणस्सु-सुजनस्य सज्जन पुरूष के।। इन उदाहरणों में 'सु' 'हो' और 'स्सु' प्रत्यय वाले पदों का सद्भाव देखा जा सकता है। 'लुक्' प्रत्यय होने पर 'जण अथवा जणा' मनुष्य का ऐसा रूप होगा। उपरोक्त गाथा का संस्कृत-अनुवाद सहित हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार हैं:संस्कृत : यः गुणान् गोपयति आत्मीयान् प्रकटान् करोति परस्य। तस्य अहं कलियुगे दुर्लभस्य बलिं करोमि सुजनस्य।।१।। हिन्दी:-मैं अपनी श्रद्धांजलि रूप सद्भावना इस कलियुग में दुर्लभ उस सज्जन और भद्र पुरूष के लिये प्रस्तुत करता हूँ जो कि अपने स्वयं के गुणों को ढांकता है; अपने गुणों की कीर्ति नहीं करता है और दूसरों के गुणों को प्रकट करता है।।४-३३८।। __ आमो ह।।४-३३९॥ अपभ्रंशे अकारात् परस्यामोमित्यादेशो भवति।। तणहं तइज्जी भगि न वि तें अवड-यडि वसन्ति।। अह जणु लग्गि वि उत्तरइ अह सह सई मज्जन्ति।।१।। अर्थः- अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों के षष्ठी बहुवचन में प्राप्तव्य संस्कृत-प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर 'ह' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से सूत्र-संख्या ४-३४५ से 'लुक्-०' रूप से भी षष्ठी विभक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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