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320 : प्राकृत व्याकरण
में प्राप्ति हो सकती है। उदाहरण रूप से गाथा में संग्रहित पद इस प्रकार हैं:- (१) तणह-तृणानाम् तिनकों के। गाथा का संस्कृत और हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : तृणानाम् तृतीया भङ्गी नापि, (-नैव), तानि अवट तटे वसन्ति।।
अथ जनः लगित्वा उतरति अथ सह स्वयं मज्जन्ति।। हिन्दी:-जो घास नदी-नाला आदि के किनारे पर उगता है; उसकी दो ही अवस्थाएं होती हैं; तीसरी अवस्था का अभाव है, या तो लोग उनको पकड़ करके उतरते हैं अथवा उनके साथ स्वयं डूब जाते हैं।।४-३३९।।
हुं चेदुदभ्याम्॥४-३४०।। अपभ्रंशे इकारोकाराभ्यां परस्यामो हुं हं चादेशौ भवतः।। दइवु घडावइ वणि तरूहुं सउणिहं पक्क फलाइ।। सो वरि सुक्खु पइट्ठ ण वि कण्णहिं खल-वयणाई।।१।। प्रायोधिकारात् क्वचित् सुपोपि हु।। धवलु विसूरइ सामि अहो, गरूआ भरू पिक्खे वि।। अउं कि न जुत्तउ दुहुँ दिसिहं खंडई दोण्णि करे वि।। २।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में इकारान्त और उकारान्त शब्दों के षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर 'हुं और हं' ऐसे दो प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसा कि प्रथम गाथा में आये हुए निम्नोक्त पदों से जाना जा सकता है। (१) तरूहुं-तरूणां-वृक्षों के; (२) सउणिह-शकु-नीनां पक्षियों के लिये) प्राकृत-अपभ्रंश आदि भाषाओं में चतुर्थी और षष्ठी' विभक्तियां एक जैसी ही होती हैं; इसलिये दूसरा पद 'मउणिह' षष्ठी में होता हुआ भी चतुर्थी विभक्ति-बोधक है। गाथा का संस्कृत तथा हिन्दी भाषान्तर निम्न प्रकार से है:संस्कृत : देवःघटयति वने तरूणां शकुनीनां (कृते) पक्व-फलानि।।
तद् वरं सोख्यं प्रविष्टानि नापि कर्णयोः खल-वचनानि।। हिन्दी:-भाग्य से वन में पक्षियों के लिये वृक्षों पर पके हुए फलों का निर्माण किया हैं; ऐसा होना पक्षियों के लिये बहुत सुखकारी ही है; क्योंकि इससे (पेट-पूर्ति के लिये) पक्षियों को दुष्ट-पुरूषों के वचन तो कानों द्वारा नहीं सुनने पडते हैं; अर्थात् खल-वचन कानों में प्रवेश तो नहीं करते हैं।।१।।
'प्रायः' अधिकार से 'हु' प्रत्यय ‘इकारान्त-उकारान्त' शब्दों के लिये सप्तमी-विभक्ति के बहुत वचन में भी प्रयुक्त होता हुआ देखा जाता है। सप्तमी के बहुवचन में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति आगे आने वाले सूत्र संख्या ४-३४७ से जानना चाहिये। यहां पर 'हु' प्रत्यय की सिद्धि के लिये द्वितीय गाथा में 'दु हुं-द्वयोः दो में ऐसा पद दिया गया है। द्वितीय गाथा का संस्कृत तथा हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : धवलः खिद्यति (विसूरइ) स्वामिनः गुरूं भारं प्रेक्षय।।
अहं किं युक्तः द्वयोर्दिशो खंडे द्वे कृत्वा।।२।। अर्थः-(कवि कल्पना है कि एक विवेकी) सफेद बैल अपने (एक और जुते हुए) स्वामी को भारी बोझ से (लदा हुआ) देख करके अत्यन्त दुःख का अनुभव करता है और (अपने आप के लिये कल्पना करता है कि)-मैं दो विभागों में क्यों नहीं विभाजित कर दिया गया; जिससे कि मैं जुए की दोनों दिशाओं में दोनों ओर जोत दिया जाता।।४-३४०।।
___ उसि-भ्यस्-डीनां हे-हुं-हयः।।४-३४१।। अपभ्रंशे इदुद्-भ्यां परेषां उसि-भ्यस्-डि इत्ये तेषां यथासंख्यं हे, हु, हि इत्येते त्रय आदेशाः भवन्ति। उसे है।
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