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70 : प्राकृत व्याकरण
रायाणाहिन्तो; रायाणासुन्तो; इत्यादि । 'आम्' प्रत्यय का उदाहरणः- राज्ञाम्-राईणं अथवा पक्षान्तर में रायाणं और 'सुप्' प्रत्यय का उदाहरण:- राजसु - राईसु अथवा पक्षान्तर में रायाणेसु होता है।
राजभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन का रूप है इसके प्राकृत रूप राईहि और रायाणेहि होते हैं इनमें से प्रथम रूप सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-५४ से 'ज' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ई' की प्राप्ति; और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राईहि सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (राजभिः) - रायाणेहि में सत्र - संख्या १ - १७७ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित 'ज्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५६ से प्राप्तांग 'रायन्' में स्थित अन्त्य अवयव 'अन्' के स्थान पर 'आण' आदेश प्राप्ति; तत्पश्चात् ३ - १५ से प्राप्तांग 'रायाण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आगे तृतीया - बहुवचन - बोधक-प्रत्यय रहा हुआ होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रायाणेहि सिद्ध हो जाता है।
राजभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप राईहि, राईहिन्तो और राईसुन्ता होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-५४ से 'ज' के स्थान पर-(वैकल्पिक रूप से) दीर्घ 'ई' की प्राप्ति और ३ - ९ से पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय ' भ्यस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'हि- हिन्तो - सुन्तो प्रत्ययों की प्राप्ति होकर राईहि, राईहिन्तो और राईसुन्तो रूप सिद्ध हो जाते हैं।
राईणं रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ५६ में की गई है।
राजसु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप राईस होता है। इसमें 'राई' अंग की प्राप्ति इसी सूत्र में वर्णित उपर्युक्त विधि- अनुसार तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सु' की प्राकृत में भी प्राप्ति होकर राईस रूप सिद्ध हो जाता है। ३-५४।।
आजस्य टा-ङसि-ङस्सु सणाणोष्वण् ।। ३-५५।।
राजन् शब्द संबन्धिन आज इत्यवयवस्य टाङसिङस्सु णा णो इत्यादेशापन्नेषु परेषु अण् वा भवति ।। रण्णा राइणा कयं । रण्णो राइणो आगओ धणं वा । टा ङसि ङस्स्विति किम् । रायाणो चिट्ठन्ति पेच्छ वा ।। सणाष्विति किम्। राएण। रायाओ। रायस्स ।।
अर्थः-संस्कृत शब्द 'राजन्' के प्राकृत रूपान्तर में तृतीया विभक्ति के एकवचनीय संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर सूत्र - संख्या ३ - ५१ से प्राप्तव्य 'णा' प्रत्यय परे रहने पर तथा पंचमी विभक्ति के एकवचनीय संस्कृत प्रत्यय 'ङस्=िअस्' और षष्ठी विभक्ति के एकवचनीय संस्कृत प्रत्यय 'ङस्=अस्' के स्थान पर प्राकृत में सूत्र - संख्या ३-५० से प्राप्तव्य 'णो' प्रत्यय परे रहने पर एवं सूत्र - संख्या १ - ११ से 'राजन्' के अन्त्य 'न्' का लोप हो जाने पर शेष रहे हुए हुए 'राज' के अन्त्य अवयव रूप 'आज' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अण्' आदेश की प्राप्ति हुआ करती है । राज्ञा कृतम् - रण्णा कयं अथवा राइणा कयं अर्थात् राजा से किया गया है। राज्ञः आगतः रण्णो आगओ अथवा राइणो आगओ अर्थात् राजा से आया हुआ है। षष्ठी विभक्ति के एकवचन का उदाहरण इस प्रकार है:- राज्ञः धनम् - रण्णो धणं अथवा राइणोधणं अर्थात् राजा का धन (है) यों ' अण्' आदेश प्राप्ति की वैकल्पिक-स्थित समझ लेनी चाहिये।
प्रश्न:- मूल सूत्र में - 'टा - ङसि - ङस्' का उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तरः- संस्कृत शब्द ‘राजन्' के प्राकृत रूपान्तर में 'आज' अवयव के स्थान पर 'अण' (आदेश) की प्राप्ति उसी अवस्था में होती है, जबकि 'टा' अथवा 'ङसि' अथवा 'ङस्' प्रत्ययों में से कोई एक प्रत्यय रहा हुआ हो; अन्यथा नहीं। जैसेः- राजानः तिष्ठन्ति-रायाणो चिट्ठन्ति; यह उदाहरण प्रथमान्त बहुवचन वाला है और इसमें 'टा' अथवा 'ङसि' अथवा 'ङस्' प्रत्यय का अभाव है; इसी कारण से इसमें 'राजन्' के अवयव आज के स्थान पर 'अण्' आदेश प्राप्ति का भी
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