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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 69 इणममामा ।। ३-५३॥ राजन् शब्द संबन्धिनो जकारस्य अमाम्भ्यां सहितस्य स्थाने इणम् इत्यादेशो वा भवति ।। राइणं पेच्छ । राइणं ध पक्षे । रा । राईणं ।। अर्थः- संस्कृत शब्द 'राजन्' के प्राकृत रूपान्तर में द्वितीया विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय 'अम्' और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय 'आम्' प्राप्त होने पर मूल शब्दस्थ 'ज' व्यञ्जन सहित उपर्युक्त प्राप्त प्रत्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इण' आदेश की प्राप्ति हुआ करती है। तात्पर्य यह है कि प्राकृत रूपान्तर में 'ज' और उपर्युक्त प्रत्यय इन दोनों के स्थान पर 'इणं' आदेश वैकल्पिक रूप से हुआ करता है। जैसे:- राजानम् पश्य = राइणं (अथवा राय) पेच्छ; यह उपर्युक्तं विध् नानुसार द्वितीया विभक्ति के एकवचन का उदाहरण हुआ। षष्ठी विभक्ति के बहुवचन का उदाहण इस प्रकार है: - राज्ञाम् धनम्=राइण (अथवा राईणं या रायाणं) धणं । वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में राइणं के स्थान पर रायं जानना चाहिये और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में राइणं के स्थान पर राईणं अथवा रायाणं जानना चाहिये। राजानम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप राइणं और रायं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप और ३ - ५३ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' सहित पूर्वस्थ 'ज' व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत में 'इणं' आदेश की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राइणं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप ( राजानम् = ) रायं में सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; १ - १७७ से 'ज्' का लोप; १-१५० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५ द्वितीया विभक्ति एकवचन में संस्कृत प्रत्यय अम् के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रायं सिद्ध हो जाता है। पेच्छ रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २३ में की गई है। राज्ञाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त का रूप है। इसके प्राकृत रूप राइणं और राईणं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप और ३-५३ से षष्ठी-विभक्ति बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' सहित पूर्वस्थ 'ज' व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत में 'इण' आदेश की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राइणं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- (राज्ञाम् = ) राईणं में सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-५४ से 'ज' के स्थान पर आगे षष्ठी विभक्ति का बहुवचन - बोधक प्रत्यय 'आम्' रहा हुआ होने से' ई' की प्राप्ति; ३ - ६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप राईणं भी सिद्ध हो जाता है। धण रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ५० में की गई है । । ३ - ५३ ।। ईद्भिस्यसाम्सुपि ॥। ३-५४।। राजन् शब्द संबन्धिनो जकारस्य भिसादिषु परतो वा ईकारो भवति ।। भिस्। राईहि।। भ्यस्। राईहि । राईहिन्तो । राई - सुन्तो । आम् । राईणं ।। सुप् । राईसु । पक्षे । रायाणेहि । इत्यादि । Jain Education International अर्थः- संस्कृत शब्द 'राजन्' के प्राकृत रूपान्तर में तृतीया विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय, पंचमी षष्ठी विभक्ति बहुवचन का प्रत्यय और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय परे रहने पर मूल शब्द 'राजन्' में स्थित 'ज' व्यञ्जन के स्थान पर वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ई' की प्राप्ति हुआ करती है जैसे:- 'भिस्' प्रत्यय का उदाहरण:- राजभिः = राईहि अथवा पक्षान्तर में रायाणेहि; ' भ्यस्' प्रत्यय के उदाहरण:- राजभ्यः - राईहि; राईहिन्तो, राईसुन्तो अथवा पक्षान्तर में रायाणाहि, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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