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68 : प्राकृत व्याकरण है:- राज्ञा कृतम् राइणा कयं अर्थात् राजा से किया हुआ है इसी प्रकार से 'ङि' प्रत्यय के स्थानीय रूप 'म्मि' का उदाहरण इस प्रकार है:- राज्ञि-अथवा राजनि-रायम्मि अर्थात् राजा में। इस प्रकार तृतीया के एकवचन में और सप्तमी के एकवचन में क्रम से प्राप्त ‘णा' प्रत्यय और 'म्मि' प्रत्यय के पूर्व में 'राजन्' शब्द में स्थित 'ज' के स्थान पर 'इ' की आदेश प्राप्ति हुई है। वैकल्पिक पक्ष होने से जहां प्राप्त प्रत्यय ‘णो', 'णा' और म्मि' प्रत्ययों के पूर्व राजन्' शब्द में स्थित 'ज' के स्थान पर 'इ' आदेश प्राप्ति नहीं होगी; वहां 'राजन्' शब्द के रूप उपर्युक्त विभक्तियों में इस प्रकार होंगे:- राजानः =रायाणो अर्थात् राजा गण। राज्ञः-रायाणो अर्थात् राजाओं को। राज्ञः=रण्णो अर्थात् राजा से। राज्ञः-रण्णो अर्थात् राजा का। राज्ञा-रायणा अथवा राएण अर्थात् राजा द्वारा या राजा से। राज्ञि या राजनि-रायम्मि अर्थात् राजा में अथवा राजा पर। इन उदाहरणों में यह प्रदर्शित किया गया है कि 'णो, णा और मिम्म' प्रत्ययों के प्राप्त होने पर भी वैकल्पिक पक्ष होने से 'राजन्' शब्द में स्थित 'ज' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति नहीं हुई है। यों वृत्ति में वर्णित शब्द 'इकारो वा' का अर्थ जानना।
राजानः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप राइणो होता है। इसमें 'राइ' अंग की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-५० में वर्णित साधनिका के अनुसार और तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२२ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर राइणो रूप सिद्ध हो जाता है।
राज्ञः संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप राइणो होता है। इसमें उपर्युक्त रीति से सूत्र-संख्या ३-५० और ३-२२ से साधनिका की प्राप्ति होकर राइणो रूप सिद्ध हो जाता है।
राइणो पंचम्यन्त एकवचन और षष्ठ्यन्त एकवचन के रूप में इसकी सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की जा चुकी है। चिटुति रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२० में की गई है। पेच्छ रूप की सिद्धि सत्र-संख्या १-२३ की गई है। आगओ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है। धणं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की गई है। कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की गई है। राइणा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५१ में की गई है। 'वा' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६७ में की गई है।
राज्ञि अथवा राजनि संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन के रूप है। इनके प्राकृत रूप राइम्मि और रायम्मि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में 'राइ' अंग की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-५० में वर्णित साधनिका के अनुसार और तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डि-ई' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राइम्मि सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (राज्ञि अथवा राजनि) रायम्मि में 'राय' अंग की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-५० में वर्णित साधनिका के अनुसार और तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-११ से प्रथम रूप के समान ही 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रायम्मि भी सिद्ध हो जाता है।
'रायाणो' (प्रथमान्त-द्वितीयान्त रूप) की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की गई है। रण्णो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० की गई है।
राज्ञा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप रायणा और राएण होते है। इनमें से प्रथम रूप में 'राय' अंग की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-५० में वर्णित साधनिका के अनुसार और तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५१ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप रायणा सिद्ध हो जाता है।
(द्वितीय रूप-) राएण-की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५१ में की गई है। ।। ३-५२।। Jain Education International
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