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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 67 __तृतीय रूप- (राज्ञः=) रायस्स में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत-शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप;१-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप रायस्स भी सिद्ध हो जाता है। धनम् संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप धणं होता हैं इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति धणं रूप सिद्ध हो जाता है।३-५०॥ टा णा॥ ३-५१॥ राजन् शब्दात् परस्य टा इत्यस्य णा इत्यादेशो वा भवति।। राइणा। रण्णा पक्षे राएण कय।। अर्थः-संस्कृत शब्द 'राजन् के प्राकृत रूपान्तर में तृतीया-विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'णा' आदेश की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे :-राज्ञा कृतम् राइणा-रण्णा-(अथवा-) राएण कयं; अर्थात् राजा से किया हुआ है। यहां प्रथम दो रूपों में 'णा' आदेश को प्राप्ति हुई है। राज्ञा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप राइणा, रण्णा और राएण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में 'राई' अंग की प्राप्ति। सूत्र-संख्या ३-५० में वर्णित साधनिका के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५१ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' आदेश-प्राप्त प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर प्रथम रूप राइणा सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(राज्ञा-) रण्णा में 'रण' अंग की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-५० में वर्णित साधनिक के अनुसारः तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५१ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्रथम रूप के समान ही 'णा' आदेश-प्राप्त प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रण्णा भी सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप -(राज्ञा-) राएण में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन्न 'न्' का लोप; १-१७७ से 'ज्' का लोप; ३-१४ से प्राप्तांग 'राअ में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आगे तृतीया विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय रहा हुआ होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'राए' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप राएण सिद्ध हो जाता है। 'कयं रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है। ॥३-५१।। इर्जस्य णो-णा-ङो ॥३-५२।। राजन् शब्द संबन्धिनो जकारस्य स्थाने णो-णा-डिषु परेषु इकारो वा भवति। राइणो चिट्ठन्ति पेच्छ आगओ धणं वा।। राइणा कयं। राइम्मि। पक्षे। रायाणो। रण्णो। रायणा। राएण। रायम्मि।। ___ अर्थः- संस्कृत शब्द 'राजन् के प्राकृत रूपान्तर में (प्रथमा बहुवचन में, द्वितीया बहुवचन में, पंचमी एकवचन में और षष्ठी एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय) णो; (तृतीया एकवचन में प्रत्यय) णा और सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'डि' स्थानीय रूप 'म्मि' परे रहने पर (मूल संस्कृत शब्द 'राजन् में स्थित) 'ज' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' को प्राप्ति होती है। जैसेः- राजानः तिष्ठन्ति-राइणो चिट्ठन्ति अर्थात् राजा गण ठहरे हुए हैं। राज्ञः पश्य-राइणो पेच्छ अर्थात् राजाओं को देखो। राज्ञः आगतः राइणो आगओ अर्थात् राजा से आया हुआ है। राज्ञः धनम् राइणो धणं अर्थात् राजा का धन। इन उदाहरणों से विदित होता है कि प्रथमा द्वितीया के बहुवचन में और पंचमी षष्ठी के एकवचन के प्राप्त प्रत्यय ‘णो' के पूर्व में राजन्' शब्द में स्थित 'ज' के स्थान पर 'इ' की आदेश प्राप्ति हुई है 'णा' प्रत्यय का उदाहरण इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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