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162 : प्राकृत व्याकरण विशेष-स्थिति बतलाई जाने वाली है। इसीलिए हलन्त चकार की योजना अन्त्य रूप से करने की आवश्यकता पड़ी है।
"हसइ क्रियापद रूप कि सिद्धि सूत्र-संख्या २-१९८ में की गई है। ___ हसति संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष का एकवचनान्त क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप हसए होता है इस में सूत्र-संख्या ३-१३९ से संस्कृत प्रत्यय "ति" के स्थान पर प्राकृत में "ए" प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसए रूप सिद्ध हो जाता हैं।
वेपते संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष का एकवचनान्त आत्मनेपदीय क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप वेवइ और वेवए होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प्' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और ३-१३९ से संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'इ' और 'ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों प्राकृत क्रियापदों के रूप वेवइ और वेवए सिद्ध हो जाते हैं। ३-१३९।।
द्वितीयस्य सि से ।। ३-१४०।। त्यादीनां परस्मैदानामात्मनेपदानां च द्वितीयस्य त्रयस्य संबन्धिन आद्यवचनस्य स्थाने सि से इत्येतावादेशी भवतः।। हससि। हससे। वेवसि। वेवसे।।
अर्थः- संस्कृत भाषा में द्वितीय पुरुष के एकवचन में वर्तमानकाल मे प्रयुक्त होने वाले परस्मैपदीय और आत्मने पदीय प्रत्यय 'सि' तथा 'से' के स्थान पर प्राकृत में 'सि' और 'से' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- हससि-हससि और हसते-तू हंसता है अथवा तू हंसती है। वेपसे वेवसि और वेवसे-तू काँपता है अथवा तू काँपती है।
हससि संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप हससि और हससे होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१४० से 'हस्' धातु में वर्तमानकाल के द्वितीय-पुरुष के एकवचनार्थ में प्राकृत में क्रम से सि' और 'से' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर हससि तथा हससे रूप सिद्ध हो जाते हैं।
वेपस संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त आत्मनेपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप वेवसि और वेवसे होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और ३-१४० से प्राप्त 'वेव' धातु में वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचनार्थ में क्रम से 'सि' और 'से' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर वेवसि और वेवसे रूप सिद्ध हो जाते हैं।।३-१४०।।
तृतीयस्य मिः ।। ३-१४१।। त्यादीनां परस्मैपदानामात्मनेपदानां च तृतीयस्य त्रयस्याद्यस्य वचनस्य स्थाने मिरादेशो भवति।। हसामि। वेवामि।। बहुलाधिकाराद् मिवेः स्थानीयस्य मेरिकार लोपश्च।। बहु-जाणयरूसिउं सक्की शक्नोमीत्यर्थः।। न मरं। न म्रिये इत्यर्थः।। ____ अर्थः- संस्कृत भाषा में तृतीय पुरुष के (उत्तम-पुरुष) एकवचन में वर्तमानकाल में प्रयुक्त होने वाले परस्मैपदीय
और आत्मनेपदीय प्रत्यय 'मि' और 'इ' के स्थान पर प्राकृत में 'मि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- हसामि-हसामि=मैं हंसता हूँ अथवा मैं हंसती हूँ। वेपे-वेवामि-मैं काँपता हूं अथवा मैं कांपती हूँ 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से प्राकृत प्रत्यय 'मि' में स्थित 'इ' स्वर का कहीं-कहीं पर लोप भी हो जाया करता है; तदनुसार लोप हुए स्वर 'इ' के पश्चात् शेष रहे हुए प्रत्यय रूप हलन्त 'म्' का सूत्र-संख्या १-२३ के अनुसार अनुस्वार हो जाता है। उदाहरण इस प्रकार है:- हे बहु-ज्ञानक! रोषितुम् शक्नोमि-हे बहु जाणय! रूसिउं सक्कं हे बहुज्ञानी मैं रोष करने के लिए समर्थ हूँ। इस उदाहरण में सक्कामि के स्थान पर सक्कं की प्राप्ति हुई है; जो यह प्रदर्शित करता है कि प्राप्त प्रत्यय 'मि' के स्थान पर प्रत्ययस्थ 'इ' स्वर का लोप होकर शेष प्रत्यय रूप हलन्त 'म्' का अनुस्वार हो गया है। आत्मनेपदीय धातु
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