________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित: 185 सद्भाव होने पर भी उस अन्त्य स्वर 'ओ' को 'आ' की प्राप्ति नहीं हुई है; यों यह निष्कर्ष प्राप्त हुआ है कि केवल ' अन्त्य अ' को ही 'आ' की प्राप्ति होती है; अन्य अन्त्य स्वर को नहीं ।
'हसामि' क्रियापद की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ -१४१ में की गई है।
हसमि संस्कृत वर्तमानकाल का रूप है। इसका प्राकृत रूप हसमि होता है। इसमें सूत्र- संख्या ३-१४१ से मूल प्राकृत धातु 'हस्' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'मि' के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप हसमि सिद्ध हो जाता है।
जानामि संस्कृत का वर्तमानकाल का रूप है। इसके प्राकृत रूप जाणामि और जाणमि होते हैं। इनमें सूत्र-- - संख्या ४-७ से संस्कृत मूल-धातु 'ज्ञा' के स्थानीय रूप 'जान्' के स्थान पर प्राकृत में 'जाण' रूप की आदेश प्राप्ति; ३ - १५४ से प्राप्त - धातु 'जाण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे 'म्' से प्रारम्भ होने वाले काल-बोधक-प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति; और ३ - १४१ से प्राप्तांग 'जाणा और जाण' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'मि' के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों क्रियापद-रूप- 'जाणामि और जाणमि' सिद्ध हो जाता हैं।
लिखामि संस्कृत वर्तमानकाल का रूप है। इसके प्राकृत रूप लिहामि और लिहमि होते हैं। सूत्र - संख्या १ - १८७ से मूल संस्कृत - धातु 'लिख्' में स्थित अन्त्य व्यंजन 'ख' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' की प्राप्ति; ४ - २३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'लिह' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३ - १५४ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के आगे 'म्' से प्रारम्भ होने वाले काल-बोधक-प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति और ३- १४१ से प्राप्तांग 'लिहा और लिह' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरूष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'मि' के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों क्रियापद-रूप 'लिहामि और लिहमि' सिद्ध हो जाते हैं।
भवामि संस्कृत वर्तमानकाल का रूप है। इसका प्राकृत रूप होमि होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु 'भू' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' रूप की आदेश प्राप्ति और ३- १४१ से प्राप्त प्राकृत धातु 'हो' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'मि' के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत-क्रियापद का रूप होमि सिद्ध हो जाता है । ३ - १५४ ॥
इच्च मो - मु- मेवा ।। ३- १५५।।
अकारान्ताद्धातोः परेषु मो- मु-मेषु अत इत्वं चकाराद् आत्वं च वा भवतः । भणिमो भणामो । भणिमु भणामु । भणिम भणाम। पक्षे। भणमो । भणमु। भणम।। वर्तमाना- मञ्चमी - शतृषु वा (३-१५८) इत्येत्वे तु भणेमो । भणेमु । भणे। अत इत्येव । ठामो । होमो ||
अर्थः- प्राकृत भाषा की अकारान्त धातुओं में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचन के प्रत्यय 'मो-मु-म' परे रहने पर वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति हुआ करती है तथा मूल-सूत्र में चकार होने से उपर्युक्त सूत्र-संख्या ३-१५४ से अनुसार उस अन्त्य 'अ' के स्थान पर इन्हीं 'मो-मु-म' प्रत्ययों के परे रहने पर वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति भी हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- भणाम :- भणिमो भणामो; भणिमु भणामु; भणिम भणाम; वैकल्पिक पक्ष होने से जहाँ पर अन्त्य 'अ' को 'इ' अथवा 'आ' की प्राप्ति नहीं होगी वहाँ पर 'भणमी, भण और भणम' रूप भी बनेंगे। इसी प्रकार से सूत्र - संख्या ३ - १५८ में ऐसा विधान निश्चित किया गया है कि वर्तमानकाल के आज्ञार्थक विधिअर्थक लकारों के और वर्तमान- कृदन्त के' प्रत्ययों के परे रहने पर अकारान्त- - धातुओं के अन्त्य ' अकार' को वैकल्पिक रूप से 'एकार' की प्राप्ति भी हुआ करती है; तदनुसार वर्तमानकाल के प्रत्ययों के परे रहने पर अकारान्त धातुओं के अन्त्यस्थ' अकार' को वैकल्पिक रूप से 'एकार' की प्राप्ति होने का विधान होने से 'भण' धातु के उपर्युक्त रूपों के अतिरिक्त ये तीन रूप और बनते हैं:- भणेमो, भणेमु और भणेम; इन बारह ही रूपों का एक ही अर्थ होता है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org