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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 21 स्थान पर 'णो' आदेश-प्राप्त प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है; अन्य किसी भी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय के स्थान पर 'णो' आदेश-प्राप्त प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है। मूल-सूत्र में 'जस्-रासोः' ऐसा जो द्वित्व रूपात्मक उल्लेख है; इसको यथाक्रम से 'इकारान्त' और 'उकारान्त' शब्दों में संयोजित किया जाना चाहिये; दोनों का दोनों में क्रम स्थापित कर देना चाहिये। ऐसा 'यथा-संख्यात्मक' भाव प्रदर्शित करने के लिये ही 'द्वित्व' रूप से 'जस-शसोः' का उल्लेख किया गया है। यही परिपाटी आगे आने वाले सूत्र-संख्या ३-२३ के संबंध में भी जानना चाहिये जैसा कि ग्रंथकार ने वृत्ति में उत्तर सूत्रेऽपि' पद का निर्माण करके अपने मन्तव्य को प्रदर्शित किया है। गिरयः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है इसके प्राकृत रूप गिरिणो और गिरी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-२२ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' आदेश प्राप्ति होकर गिरिणो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप गिरी भी सिद्ध हो जाता है। तरवः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप तरुणो और तरू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-२२ से संस्कृत प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप तरुणो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-४ से संस्कृत प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस्' के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप तरू भी सिद्ध हो जाता है। राजन्ते संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप रेहन्ति होता है। इसमें सूत्र-संख्या-४-१०० से संस्कृत 'राज्' धातु के स्थान पर 'रेह आदेश; ४-२३९ से प्राकृत हलन्त धातुओं के विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; और ३-१४२ से वर्तमानकाल के बहुवचन में प्रथमपुरुष में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रेहन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। गिरिणो (द्वितीयान्त बहुवचनान्त) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१८ में की गई है। तरुणो (द्वितीयान्त बहुवचनान्त) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१८ में की गई है। पेच्छ (क्रिया पद) रूप की सिद्धि सत्र-संख्या १-२३ में की गई है। गिरी (द्वितीयान्त बहुवचनान्त) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१८ में की गई है। तरू (द्वितीयान्त बहुवचनान्त) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१८ में की गई है। दहीइं (प्रथमान्त बहुवचनान्त) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२० में की गई है। महूई (प्रथमान्त बहुवचनान्त) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२० में की गई है। गिरि रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है। तरूं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१६ में की गई है। वच्छा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है। वच्छे रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है।।३-२२।। . उसि-ङसोः पुं-क्लीबे वा ॥३-२३।। ____ पुसि क्लीबे च वर्तमानादिदुतः परयोर्डसिङसोर्णो वा भवति।। गिरिणो। तरुणो। दहिणो। महुणो आगओ विआरो वा । पक्षे। उसेः । गिरीओ। गिरीउ। गिरीहिन्तो। तरूओ। तरूउ। तरुहिन्तो॥ हिलुको निषेत्स्यते।। उसः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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