________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 375 हिन्दी:-आनन्द पूर्वक स्वस्थ अवस्था में रहे हुए मनुष्यों के साथ तो प्रत्येक आदमी बातचीत करता ही है (और ऐसी ही रीति इस स्वार्थमय संसार की है); परन्तु दुखियों को जो ऐसी बात कहता है कि "तुम मत डरो'!; वही सज्जन है। "अभय वचन" कहने वाला पुरूष ही इस लोक में सज्जन कहलाता है। इस गाथा में "मा भैषीः" के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में "मब्भीसडी" की आदेश-प्राप्ति का विधान समझाया गया है।।१६।। संस्कृत : यदि रज्यसे यद् यद्-दृष्टं तस्मिन् हृदय ! मुग्ध स्वभाव !
लोहेन स्फुटता यथा धनः (=तापः ) सहिष्यते तावत्।।१७।। हिन्दी:-अरे मूर्ख-स्वभाव वाले हृदय ! यदि तू जिस जिस को देखता है, उस उसमें आसक्ति अथवा मोह करने लग जाता है तो तुझे उसी प्रकार से कष्ट और चोट सहन करनी पड़ेगी, जिस प्रकार कि दरार पड़े हुए-लोहे "अग्नि का ताप और धन की चोटें" सहन करनी पड़ती है।। इस गाथा में संस्कत-वाक्यांश- "यद-यद-दुष्टं, तत्-तत्" के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में "जाइटिआ-जाइटिअए" ऐसे पद-रूप की आदेश प्राप्ति का उल्लेख किया गया है।।१७।। ___ इस सूत्र में इक्कीस देशज शब्दों का प्रयोग समझाया गया है। इनमें सतरह शब्दों का उल्लेख तो गाथाओं द्वारा किया गया है और शेष चार शब्दों का स्वरूप गाथा-चरणों द्वारा प्ररूपित है।।४ - ४२२।।
हुहुरू-घुग्घादय शब्द-चेष्टानुकरणयोः।।४-४२३।। अपभ्रंशे हुहुर्वादयः शब्दानुकरणे घुग्घादयश्चेष्टानुकरणे यथासंख्यं प्रयोक्तव्याः।। मई जाणिउं बुड्डीसु हउं पेम्म-दहि हुहुरूत्ति।। नवरि अचिन्तिय संपडिय विप्पिय नाव झडत्ति।।१।। आदि ग्रहणात्। खज्जइ नउ कसरक्केहिं पिज्जइ नउ घुण्टेहि।। एम्वइ होइ सुह च्छडी पिएं दिढें नयणेहि।। इत्यादि। अज्जवि नाहु महुज्जि घरि सिद्धत्था वन्देइ।। ताउँजि विरहु गवक्खेहि मक्कड्डु-घुग्घिउ देइ।। ३।।
आदि ग्रहणात्।।
सिरि जर-खण्डी लोअडी गलि मणियडा न वीस।। तो वि गोट्ठडा कराविआ मुद्धए उट्ठ-बईस।।४।। इत्यादि।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में शब्दों के अनुकरण करने में अर्थात् 'ध्वनि' अथवा 'आवाज की नकल' करने में 'हुहुरू' इत्यादि ऐसे शब्द विशेष बाले जाते हैं और चेष्टा के अनुकरण करने में अर्थात् प्रवृत्ति अथवा कार्य की नकल करने में 'घुग्घ' इत्यादि ऐसे शब्द विशेष का उच्चारण किया जाता है। उदाहरण के रूप में दी गई गाथाओं का अनुवाद क्रम से यों है:संस्कृत : मया ज्ञातं मंक्ष्यामि अहं प्रेम-हृदे हुहुरू शब्दं कृत्वा।
केवलं अचिन्तिता संपतिता विप्रिया-नौः झटिति।।१।। हिन्दी:-मैंने सोचा था अथवा मैनें समझा था कि 'हुहुरू-हुहुरू' शब्द करके मैं प्रेम रूपी (प्रियतम-संयोग रूपी) तालाब में खूब गहरी डुबकी लगाऊंगी, परन्तु (दुर्भाग्य से-) बिना विचारे ही अचानक ही (पति के) वियोग रूपी नौका झट से (जल्दी से) आ समुपस्थित हुई।
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only