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________________ 376 : प्राकृत व्याकरण 'वृत्ति में आदि' शब्द ग्रहण किया गया है; इससे अन्य शब्दों का अनुकरण करने रूप अनुवृत्ति की परिपाटी भी समझ लेना चाहिये, जैसे कि गाथा-संख्या द्वितीय में 'कसरक्क' शब्द एवं 'घुट' शब्द को ग्रहण करके इस बात की पुष्टि की गई है। उक्त गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : खाद्यते न कसरत्क शब्दं कृत्वा, पीयते न घुट् शब्दं कृत्वा।। एवमपि भवति सुखासिका, प्रिये दृष्टे नयनाम्याम्।। २॥ हिन्दी:-प्रियतम को दोनों आँखों से देखने पर भी (पूर्ण तृप्ति का अनुभव नहीं होता है क्योंकि वह तृप्ति प्राप्त करने के लिये अन्य खाद्य पदार्थों के समान) न तो 'कसरक-कसरक' शब्द करके खाया ही जा सकता है और न 'घुट-घुट' शब्द करके पीया ही जा सकता है। फिर भी परम आनन्द और अत्यधिक सुख का यों अनुभव किया जा सकता है।। २।। चेष्टानुकरण के उदाहरण गाथा-संख्या तृतीय और चतुर्थ में दिये गये हैं; जिनका संस्कृत-अनुवाद सहित हिन्दी भाषान्तर क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : अद्यापि नाथः ममैव गृहे सिद्धार्थान् वन्दते।। तावदेव विरहः गवाक्षेषु मर्कट-चेष्टां ददाति।। ३।। हिन्दी:- (मेरे प्राण-नाथ प्रियतम विदेश जाने की तैयारी कर रहे हैं और अभी वे स्वामी-नाथ-मेरे घर में ही (मंगलार्थ) सिद्ध-प्रभु की वंदना कर रहे हैं; फिर भी विरह (जनित दुःख की हुँकार) (मन रूपी) खिड़कियों में बन्दर-चेष्टाओं को (घुग्घ-घुग्घ जैसी पीड़ा-सूचक ध्वनियों को) प्रदर्शित कर रही है।। ३।। 'आदि' शब्द के ग्रहण करने से अन्य चेष्टा-सूचक शब्दों का संग्रहण भी समझ लेना चाहिये; जैसा कि गाथा-संख्या चतुर्थ में 'उट्ठ-बईस' शब्द का संग्रह किया हुआ है।। उक्त गाथा का अनुवाद यों हैं:संस्कृत : शिरसि जरा खण्डिता लोम पुटी; गले मणयः न विंशतिः।। तथापि गोष्ठस्थाः कारिताः मुग्धया उत्थानोपवेशनम्॥४॥ हिन्दी:-इस सुन्दरी के सिर पर जीर्ण-शीर्ण-(फटी-टुटी) कंबली मात्र पड़ी हुई है और गले में मुश्किल से बीस काँच की मणियां वाली कंठी होगी; फिर भी (देखो ! इसके आकर्षक सौन्दर्य के कारण से) इस मुग्धा द्वारा (आकर्षित होकर) कमरें में ठहरे हुए इन पुरूषों ने (कितनी बार) उठ-बैठ (इस मुग्धा को देखने के लिये) की है? इस गाथा में 'चेष्टा- अनुकरण' के अर्थ में 'उट्ठ-बईस' जैसे देशज शब्द का प्रयोग किया गया है। यों अपभ्रंश-भाषा में 'ध्वनि के अनुकरण करने में और चेष्टा के अनुकरण करने में अनेक देशज शब्दों का व्यवहार किया जाता हुआ देखा जाता है।।४-४२३|| घइमादयोऽनर्थकाः।।४-४२४।। अपभ्रंशे घइमित्यादयो निपाता अनर्थकाः प्रयुज्यन्ते।। अम्मडि पच्छायावडा पिउ कलहिअउ विआलि।। घई विवरीरी बुद्धडी होइ विणासहो कालि।।१।। आदि-ग्रहणात् खाई इत्यादयः।। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में ऐसे अनेक अव्यय प्रयुक्त होते हुए देखे जाते हैं; जिनका कोई अर्थ नहीं होता है। ऐसे अर्थ-हीन दो अव्यय यहाँ पर लिखे गये हैं; जो कि इस प्रकार से है;-(१) घइं और (२) खाइ।। यों अर्थ हीन अन्य अव्ययों की स्थिति को भी समझ लेना चाहिये। उदाहरण के रूप में 'घई अव्यय का प्रयोग वृत्ति में दी गई गाथा में किया गया है। जिसका अनुवाद इस प्रकार से है:Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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