________________
8 : प्राकृत व्याकरण
प्रश्न:- तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'ण' आदेश प्राप्ति होने पर ही अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों उल्लेख किया गया है?
उत्तरः- आत्मा= अप्प आदि शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर सूत्र - संख्या ३-५५, ३-५६ और ३-५७ से 'णा', 'णिआ' और 'इआ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है; तदनुसार तृतीया विभक्ति एकवचन में सूत्र - संख्या ३-६ के अनुसार 'टा' के स्थान पर प्राप्त 'ण' का अभाव हो जाता है और ऐसा होने पर शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति नहीं होगी। इसलिए यह भार - पूर्वक कहा गया है कि 'ण' आदेश प्राप्ति होने पर ही 'अ' को 'ए' की प्राप्ति होती है; अन्यथा नहीं। जैसे:- आत्मना = अप्पणा, अप्पणिआ और अप्पणाइआ अर्थात् आत्मा से ।
4
वच्छेण' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-६ में की गई है।
आत्मना संस्कृत तृतीयान्त एकवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप अप्पणा, अप्पणिआ और अप्पणइआ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १-८४ से आदि दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २ - ५१ से संयुक्त व्यंजन 'त्म' के स्थान पर 'प' की आदेश प्राप्ति; २- ५१ से संयुक्त व्यंजन 'त्म' के स्थान पर 'प' की आदेश - प्राप्ति; २-८९ से आदेश प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति ३-५६ से प्राप्त रूप 'अप्प' में 'आण' का संयोग; १-८४ से प्राप्त संयोग रूप 'आण' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; १-१० से 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर के आगे 'अण' का 'अ' होने से लोप; और ३-६ से प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'टा' में स्थित 'ट' की इत्संज्ञा होने से 'ट्' का लोप होकर शेष प्रत्यय 'आ' की प्राप्ति होकर अप्पणा रूप सिद्ध हो जाता है । अथवा ३ - ५१ से पूर्व सिद्ध 'अप्प' शब्द में ही तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'राजनवत् आत्मन शब्द सद्भावात्' संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'णा' आदेश की प्राप्ति होकर (अप्पणा) रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय और तृतीय रूप (आत्मना -) अप्पणिआ तथा अप्पणइआ में 'अप्प' रूप तक की साधनिका प्रथम रूपवत्; और ३-५७ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'णिआ' और 'णइआ' आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'अप्पणिआ' और 'अप्पणइआ' सिद्ध हो जाते हैं।
वच्छे रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-४ में की गई है।
पेच्छ रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २३ में की गई है । । ३ - १४ ।।
भिस्यपि ।।३ - १५।।
I
एषु अत एर्भवति ।। भिस्। वच्छेहि । वच्छेहिँ । वच्छेहिं ।। भ्यस् । वच्छेहि। वच्छेहिन्तो । वच्छेसुन्तो ॥ सुप् | वच्छेसु ॥
अर्थः- प्राकृत अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'भिस्' के आदेश- प्राप्त 'हि', 'हिँ' और हिं की प्राप्ति होने पर; पंचमी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'भ्यस्' के आदेश प्राप्त रूप 'हि, हिन्तो और सुन्तो' की प्राप्ति होने पर और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'सुप' के आदेश प्राप्त रूप 'सु' की प्राप्ति होने पर शब्दान्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे 'भिस्' का उदाहरण:- वृक्षैः वच्छेहि, वच्छेहिँ और वच्छेहिं अर्थात् वृक्षों से। ‘भ्यस्' का उदाहरण वृक्षेभ्यः वच्छेहि, वच्छेहिन्तो और वच्छेसुन्तो अर्थात् वृक्षों से। 'सुप्' का उदाहरणःवृक्षेषु = वच्छेसु अर्था वृक्षों पर अथवा वृक्षों में।
'वच्छेहि','वच्छेहिँ' और 'वच्छेहिं' तृतीयान्त बहुवचन वाले रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-७ में की गई है। 'वच्छेहि', 'वच्छेहिन्तो' और 'वच्छेसुन्तो' पंचम्यन्त बहुवचन वाले रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ९ में की गई है। वच्छेसु रूप क सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २७ में की गई है । ३-१५ ।।
इदुतो दीर्घः ।।३ - १६ ।
इकारस्य उकारस्य च भिस् भ्यस्सुप्सु परेषु दीर्घो भवति ।। भिस् । गिरीहिं । बुद्धीहिं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org