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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित: 7 बहुवचन में भी होते हैं; तदनुसार दोनों ही वचनों में अन्त्य 'अ' को दीर्घ 'आ' की प्राप्ति होती है। जैसे - वृक्षेभ्य = वच्छाओ और वच्छाउ ।। इसी प्रकार से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में भी संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में आदेश प्राप्त प्रत्यय 'ण' की प्राप्ति होने पर भी अन्त्य 'अ' स्वर को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति हो जाती है । जैसे- वृक्षानाम् = दवच्छाण। मूल - सूत्र में यदि 'ङसि' इतना ही उल्लेख कर देते तो भी पंचमी विभक्ति के एकवचन में आदेश प्राप्त प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर 'अ' को 'आ' की प्राप्ति होती है। ऐसा अर्थ अभिव्यक्त हो जाता; परन्तु पंचमी विभक्ति के एकवचन में और बहुवचन में 'त्तो, दो, दु, हि और हिन्तो प्रत्ययों की एकरूपता है, एवं इस प्रकार की एकरूपता होने पर भी जहाँ दोनों वचनों में अन्त्य 'अ' को 'आ' की प्राप्ति होती है वहां बहुवचन में 'हि' और 'हिन्तो' प्रत्यय की संयोजना में सूत्र - संख्या ३-१३ एवं ३-१५ से वैकल्पिक रूप से 'अ' को 'आ' की प्राप्ति भी हो जाया करती है। इस प्रकार मूल - सूत्र में 'तो', 'दो' और 'दु' ग्रहण करके पंचमी - बहुवचन के शेष प्रत्ययों - 'हि' ' हिन्तो' और 'सुन्तो' में 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है- ऐसा विशेष अर्थ प्रति-ध्वनित करने के लिए 'त्तो' 'दो' एवं 'दु' प्रत्ययों को मूल - सूत्र में स्थान दिया गया है। जैसे :- वृक्षेभ्यः = वच्छाहि और वच्छेहि तथा वच्छाहिन्तो और वच्छेहिन्तो । इस प्रकार पंचमी के एकवचन में 'एत्व' का निषेध करने के लिये और बहुवचन में 'एत्व' का विधान करने के लिये 'त्तो', दो और 'दु' प्रत्ययों का उल्लेख किया है।
'वच्छा' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-४ में की गई है।
'वच्छाओ, 'वच्छाउ', 'वच्छाहि', 'वच्छाहिन्तो' और 'वच्छा' रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-८ में की गई है। 'वच्छत्तो', 'वच्छाओ' और वच्छाउ' बहुवचनान्त रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ९ में की गई है। 'वच्छाण' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-६ में की गई है। ३-१२ ।।
भ्यसि वा ॥ ३ - १३॥
भ्यसादेशे परे अतो दीर्घो वा भवति ।। वच्छाहिन्तो । वच्छेहिन्तो । वच्छासुन्तो । वच्छेसुन्तो। वच्छाहि। वच्छेहि।।
अर्थः- पंचमी बहुवचन के संस्कृत प्रत्यय ' भ्यस्' के स्थान पर प्राकृत में आदेश - प्राप्त प्रत्यय ' हिन्तो', 'सुन्तो' और 'हि' के पूर्वस्थ शब्दान्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति होती है एवं सूत्र - संख्या ३-१५ से वैकल्पिक पक्ष होने से 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति भी हुआ करती है । जैसे:- वृक्षेभ्यः - वच्छाहिन्तो अथवा वच्छेहिन्तो; वच्छासुन्तो अथवा वच्छेसुन्तो और वच्छाहि अथवा वच्छेहि ।।
वृक्षेभ्यः- संस्कृत पंचम्यन्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप वच्छाहिन्तो, वच्छेहिन्तो, वच्छासुन्तो, वच्छेसुन्तो, वच्छाहि और वच्छेहि होते हैं। इनमें 'वच्छ' रूप तक की साधनिका ३-४ के अनुसार ३ - ९ से पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर ' हिन्तो' 'सुन्तो' और 'हि' प्रत्ययों की क्रमिक आदेश प्राप्ति; ३ - १३ और ३-१५ से ‘वच्छ' शब्दान्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से तथा क्रम से 'आ' अथवा 'ए' की प्राप्ति होकर वच्छाहिन्तो, वच्छेहिन्ता, वच्छासुन्तो, वच्छेसन्तो, वच्छाहि और वच्छेहि रूपों की सिद्धि हो जाती है । । ३ -१३ ।।
टाण-शस्येत् ।।३-१४॥
टादेशे णे शसि च परे अस्य एकारो भवति ।। टाण । वच्छेण।। णेति किम्। अप्पणा अप्पणिआ। अप्पणइआ । शस्। वच्छे पेच्छ।।
अर्थः- प्राकृत अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'ण' की आदेश प्राप्ति होने पर अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- वृक्षेन=वच्छेण अर्थात् वृक्ष से। इसी प्रकार से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में भी संस्कृत प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर नियमानुसार लोप स्थिति प्राप्त होने पर अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- वृक्षान् पश्य=वच्छे पेच्छ अर्थात् वृक्षों को देखो।
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