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6 : प्राकृत व्याकरण
अर्थः- प्राकृत अकारान्त शब्दों में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डि-इ' के स्थान पर 'डे' और संयुक्त 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। प्राप्त प्रत्यय 'डे' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से मूल अकारान्त शब्दों में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर की इत्संज्ञा होकर उक्त 'अ' का लोप हो जाता है; तत्पश्चात् प्राप्त हलन्त रूप में 'ए' प्रत्यय की संयोजना हो जाती है। जैसे- वृक्षे वच्छे और वच्छम्मि अर्थात् वृक्ष में। सूत्र - संख्या ३- १३७ में ऐसा विधान है कि प्राकृत शब्दों में कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के प्रत्ययों के स्थान पर द्वितीया विभक्ति के प्रत्ययों का विधान होता हुआ भी देखा जाता है एवं उक्त विधानानुसार प्राप्त द्वितीया विभक्ति के सद्भाव में भी तात्पर्य सप्तमी विभक्ति का ही अभिव्यक्त होता है। जैसेः- देवे-देवम् अथवा देवम्मि अर्थात् देवता में। तस्मिन-तम् अथवा तम्मि अर्थात् उसमें कभी-कभी ऐसा भी होता है कि शब्द में द्वितीया अथवा तृतीया विभक्ति के अर्थ में सूत्र - संख्या ३ - १३५ के अनुसार सप्तमी विभक्ति के प्रत्यय संयोजित होते हुए देखे जाते हैं और तात्पर्य द्वितीया अथवा तृतीया विभक्ति का अभिव्यक्त होता है। तदनुसार सप्तमी विभक्ति वाचक 'ङि=इ' होने पर भी उसका अर्थ द्वितीया विभक्ति-वाचक प्रत्यय 'अम्=म्' के अनुसार होता है।
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वृक्षे संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप वच्छे और वच्छाम्मि होते हैं। इनमें 'वच्छ' रूप तक की साधन सूत्र - संख्या ३-४ के अनुसारः ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में क्रमशः 'ए' और 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रमशः वच्छे और वच्छम्मि रूप सिद्ध हो जाते हैं।
देवे संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप देवम् और देवम्मि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-१३७ से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का विधान एवं तदनुसार ३-५ से द्वितीया विभक्ति वाचक प्रत्यय 'म्' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप देवम् सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- (देवे - ) देवम्मि में सूत्र - संख्या ३-११ से सप्तमी-विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि = इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर देवम्मि रूप सिद्ध हो जाता है।
तस्मिन् संस्कृत सर्वनाम सप्तम्यन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप तम् और तम्मि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या ३-१३७ से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का विधान; तदनुसार ३-५ से संस्कृत- सप्तमी विभक्तिबोधक प्रत्यय 'स्मिन्' के स्थान पर प्राकृत में द्वितीया विभक्ति वाचक प्रत्यय 'म्' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'तं' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- (तस्मिन्-) तम्मि में सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत सर्वनाम रूप 'तत्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप और ३- ११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि' के स्थानीय रूप 'स्मिन्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'तम्मि' सिद्ध हो जाता है ।।३-११।।
जस्-शस् - ङसि -त्तो- दो- द्वामि दीर्घः ॥ ३-१२।
एषु अतो दीर्घो भवति ।। जसि शसि च। वच्छा।। ङसि । वच्छाओ । 'वच्छाउ' । 'वच्छाहि'। 'वच्छाहिन्तो'। वच्छा।। त्तो दो दुषु ।। वृक्षेभ्यः । वच्छत्तो । ह्रस्वः संयोगे (१ - ८४ ) इति ह्रस्वः । वच्छाओ । वच्छाउ।। आमि। वच्छाण।। ङसिनैव सिद्धे त्तो दो दु ग्रहणं भ्यसि एत्वबाधनार्थम् ।।
अर्थः- प्राकृत अकारान्त शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय 'जस्' और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय 'शस्' प्राप्त होने पर अन्त्य 'अ' स्वर का दीर्घ स्वर 'आ' हो जाता है। जैसे:- वृक्षाः वच्छा और वृक्षात्-वच्छा। इसी प्रकार से पंचमी विभक्ति के एकवचन में 'ङसि=अस्' के स्थान पर आदेश प्राप्त प्रत्यय 'ओ', 'उ','हि', 'हिन्तो' और 'प्रत्यय- लुक्' की प्राप्ति होने पर अन्त्य 'अ' स्वर का दीर्घ स्वर 'आ' हो जाता है। जैसे:- वृक्षात् वच्छाओ, वच्छाउ, वच्छाहि, वच्छाहिन्तो और वच्छा। मूल-सूत्र में 'त्तो', 'दो' और 'दु' का जो विशेष उल्लेख किया गया है; उसका तात्पर्य यह है कि पंचमी विभक्ति के एकवचन में और बहुवचन में 'तो' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर प्रथम तो अन्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ 'आ' की प्राप्ति होती है; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या १-८४ से पुनः 'आ' को 'अ' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:वृक्षात्-वच्छत्तो और वृक्षेभ्य=वच्छत्तो। 'दो=ओ' और 'दु-उ' प्रत्यय पंचमी - विभक्ति के एकवचन में भी होते हैं और
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