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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 5 जाती है। यों 'हि', हिन्तो' और 'सुन्तो' प्रत्ययों के योग से अकारान्त शब्द के छह रूप हो जाते हैं। तदनुसार कुल मिलाकर पंचमी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त में नौ रूप होते हैं; जो कि इस प्रकार है:- वृक्षेभ्य-(१) वच्छत्तो, (२) वच्छाओ, (३) वच्छाउ, (४) वच्छाहि, (५) वच्छेहि, (६) वच्छाहिन्तो, (७) वच्छेहिन्तो (८) वच्छासुन्तो और (९) वच्छेसुन्तो अर्थात् वृक्षों से।
वृक्षेभ्यः- संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप वच्छत्तो, वच्छाओ, वच्छाउ, वच्छाहि, वच्छेहि, वच्छाहिन्तो, वच्छेहिन्तो, वच्छासुन्तो और वच्छेसुन्ता होते हैं। इनमें 'वच्छ' रूप तक की साधनिका सूत्र-संख्या ३-४ के अनुसार; ३-९ से प्रथमा रूप में 'तो' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त प्रत्यय 'तो' के पूर्वस्थ वच्छ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; १-५४ से प्राप्त 'आ' के स्थान पर पुनः 'अ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप वच्छत्तो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय और तृतीय रूप-(वच्छाओ एवं वच्छाउ) में सूत्र-संख्या ३-१२ से वच्छ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; ३-९ से क्रम से 'दो' और 'दु' प्रत्ययों की प्राप्ति और १-१७७ से प्राप्त प्रत्ययों में स्थित 'द्' का लोप होकर क्रम से वच्छाओ और वच्छाउ रूपों की सिद्धि हो जाती है।
शेष चौथे रूप से लगाकर नवें रूप तक में सूत्र-संख्या; ३-१३ से तथा ३-१५ से वच्छ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आ' अथवा 'ए' की प्राप्ति और ३-९ से क्रम से 'हि' 'हिन्तो' और 'सुन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर यथा रूप वच्छाहि, वच्छेहि, वच्छाहिन्तो, वच्छेहिन्तो, वच्छासुन्तो और वच्छेसुन्तो रूपों की सिद्धि हो जाती है।।३-९।।
ङसः स्सः ॥३-१०॥ अतः परस्य उसः संयुक्तः सो भवति ॥ पिअस्स । पेम्मस्स। उपकुम्भं शैत्यम् । उवकुम्भस्स सीअलत्तणं।
अर्थः- अकारान्त शब्दों में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'स्स' प्रत्यय की आदेश-प्राप्त होती है। जैसे:- प्रियस्य=पिअस्स अर्थात् प्रिय का। प्रेमण:=पेम्मस्स अर्थात् प्रेम का और उपकुम्भं शैत्यम्-उवकुम्भस्स सीअलत्तणं अर्थात् गूगल नामक लघु वृक्ष विशेष की शीतलता को (देखो)।
प्रियस्य- संस्कृत षष्ठ्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप पिअस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'य' का लोप और ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर पिअस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रेमणः संस्कत षष्ठ्यन्त रूप है। इसका प्राकत रूप पेम्मस्स होता है। इसमें सत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-९८ से 'म' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; २-७८ से मूल संस्कृत रूप 'प्रेमन्' में स्थित (ण' के पूर्व रूप) 'न्' का लोप, और ३-१० से संस्कत षष्ठी विभक्ति वाचक प्रत्यय 'ङ सके स्थानीय रूप'अस' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेम्मस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
उपकुम्भम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उवकुम्भस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ३-१३४ से संस्कृत द्वितीया विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी विभक्ति की प्राप्ति तदनुसार ३-१० से संस्कृत द्वितीया विभक्ति के प्रत्यय 'अम्=म्' के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी विभक्ति वाचक प्रत्यय ‘स्स' की प्राप्ति होकर उवकुम्भस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
शैत्यम्-शीतलत्वम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सीअलत्तणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' को प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; २-१५४ से 'त्व' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'त्तण' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर सीअलत्तणं रूप सिद्ध हो जाता है ।।३-१०।।
डे म्मि डे ॥३-११॥ ___ अतः परस्डेर्डित् एकारः संयुक्तो मिश्च भवति ।। वच्छे। वच्छम्मि ।। देवं। देवम्मि। तम्। तम्मि। अत्त
द्वितीया-तृतीययोः सप्तमी (३-१३५) इत्यमो डिः ।। Jain Education International
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