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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 335 हिन्दी:- जो स्वयं के हृदय को चीर करके अथवा फोड़ करके उत्पन्न होते है; उनमें दूसरों के लिये दया के भाव कैसे अथवा क्यों कर हो सकते हैं? हे लोगों ! अपना बचाव करो; इस बाला के दो (निर्दयी और) कठोर स्तन उत्पन्न हो गये है।।२।। संस्कृत : सुपुरूषाः कंगोः अनुहरन्ति भण कार्येण केन?
यथा यथा महत्त्वं लभन्ते तथा तथा नमन्ति शिरसा।। ३।। हिन्दी:-कंगु नामक एक पौधा होता है, जिसके ज्यों-ज्यों फल आते हैं त्यों-त्यों वह नीचे की ओर झुकता जाता है; उसी का आधार लेकर कवि कहता है किः कृपा करके मुझे कहो कि किस कारण से अथवा किस कार्य से सज्जन पुरूष कंगु नामक पौधे का अनुसरण करते हैं? सज्जन पुरूष जैसे-जैसे महानता को प्राप्ति करते जाते हैं, वैसे-वैसे वे सिर से झुकते जाते हैं अथवा अपने सिर को झुकाते जाते हैं। नम्र होते रहते हैं।।३।। संस्कृत : यदि सस्नेहा तन्मृता, अथ जीवति निःस्नेहा।।
द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां गतिका, धन्या, किं गर्जसि ? खल मेघ।।४।। हिन्दीः-अपनी नायिका से दूर (विदेश में) रहते हुए एक नायक उमड़ते हुए मेघ को संकेत करता हुआ अपनी मनोभावनाएं यों व्यक्त करता है कि यदि वह मेरी प्रियतमा मुझसे प्रेम करती है तो मेरे वियोग में वह अवश्य ही मर गई होगी और यदि वह जीवित है तो निश्चय ही समझो कि वह मुझसे प्रेम नहीं करती है, कारण कि वियोग-जनित दुःख का उसमें अभाव है। दोनों ही प्रकार की गतियाँ मेरे लिये अच्छी हैं, इसलिये हे दुष्ट बादल! (व्यर्थ में ही) क्यों गर्जना करता है? तेरी गर्जना से न तो मुझे खेद उत्पन्न होता है, और न सुख ही उत्पन्न होता है।।४।।४-३६७।।
युष्मदः सौ तुहुं।।४-३६८।। अपभ्रंशे युष्मदः सौ परे तुहु इत्यादेशो भवति।। भमर म रूण झुणि रण्णडइ सा दिसि जोइ म रोइ।।
सा मालइ देसन्तरिअ जसु तुहुँ मरहि विओइ।।१।। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में "तू-तुम" वाचक सर्वनाम "युष्मद्" में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "सि" की प्राप्ति होने पर मूल शब्द "युष्मद्" और "प्रत्यय" दोनों के स्थान पर "तुहुँ" पद रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसेः- त्वम् त्वम्=तुहुं-तू।। गाथा का अनुवाद यों है :-- संस्कृत : भ्रमर ! मा रूण झुणु शब्दं कुरू, तां दिशं विलोकय मा रूदिहि।।
सा मालती देशान्तरिता, यस्याः त्वं म्रियसे वियोगे।।१।।। हिन्दी:-हे भंवरा ! "रूण झुण-रूण झुण" शब्द मत कर; उस दिशा को देख और रूदन मत कर। वह मालती का फूल तो बहुत ही दूर है; जिसके वियोग में तू मर रहा है।।१।।४-३६८।।
जस्-शसोस्तुम्हे तुम्हइं।।४-३६९।। अपभ्रंशे युष्मदो जसि शसि च प्रत्येकं तुम्हे तुम्हइं इत्यादेशौ भवतः।। तुम्हे तुम्हइं जाणह।। तुम्हे तम्हइं पेच्छइ।। वचन भेदो यथासंख्य निवृत्त्यर्थः।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में "तु-तुम" वाचक सर्वनाम "युष्मद्" शब्द में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में "जस्" प्रत्यय की प्राप्ति होने पर मूल शब्द "युष्मद्" और "जस्-प्रत्यय' दोनों के स्थान पर "तुम्हे और तुम्हइं" ऐसे दो पद-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से इस "युष्मद्" शब्द में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में "शस्' प्रत्यय की संयोजना करने पर मूल शब्द "युष्मद्" और प्रत्यय "शस्" दोनों के स्थान पर प्रथमा विभक्ति के बहुवचन के समान ही "तुम्हे और तुम्हइं" ऐसे ही दो पद-रूपों की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसेः- यूयम्
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