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________________ 334: प्राकृत व्याकरण सर्वस्य साहो वा ।।४-३६६।। अपभ्रंशे सर्व-शब्दस्य साह इत्यादेशौ वा भवति ।। साहु वि लोउ तडफड वढत्तणहो तणेण ।। वड्ढप्पणु परिपाविअइ हत्थिं मोक्क लडेण ॥१॥ पक्षे । सव्वुवि ॥ अर्थः- अपभ्रंश भाषा में 'सर्व' सर्वनाम के स्थान पर 'सव्व' अङ्ग की प्राप्ति होती है और विकल्प से 'सर्व' स्थान पर 'साह' अङ्ग रूप की प्राप्ति भी देखी जाती है। जैसे:- सर्वः सव्वु और साहु-सब । यों अन्य विभक्तियों में भी 'साह' के रूप समझ लेना चाहिये ।। गाथा का अनुवाद यों है: - संस्कृत : सर्वोऽपि लोकः प्रस्पन्दते (तडप्फडइ) महत्त्वस्य कृते ।। महत्त्वं पुनः प्राप्यते हस्तेन मुक्तेन ॥ १ ॥ हिन्दी :- विश्व में रहे हुए सभी मनुष्य बड़प्पन प्राप्त करने के लिये तड़फड़ाते रहते हैं- व्याकुलता मय भावनाएं रखते हैं; परन्तु बड़प्पन तभी प्राप्त किया जा सकता है; जबकि मुक्त हस्त होकर दान दिया जाता है। अर्थात् त्याग से ही, दान से ही - बड़प्पन की प्राप्ति की जा सकती है । । ४ - ३६६ । किमः काइं-कवणौ वा ।।४-३६७।। अपभ्रंशे किमः स्थाने काई कवण इत्यादेशो वा भवतः ।। इन सु आवइ दुइ घरू काई अहो मुहुं तुज्झ ॥ aणु जु खंडइ त सहिए सो पिउ होइ न मज्झ ॥ १ ॥ काई न दूरे देवख ।। (४-३४९) फोडन्ति जे हिअडउं अप्पणउं ताहं पराई कवण घण ॥ रक्खेज्जहु लोअहो अप्पणा बालहे जाया विसम थण || २ || सुपुरिस कंगुहे अणुहरहिं भण कज्जें कवणेण ।। जिवँ जिवँ वट्टत्तणु लहहिं तिवँ तिवँ नवहिँ सिरेण || ३ || जइससणेही तो मुइअ अह जीवइ निण्णेह || बिहिं वि पयारेहिं गइअ धण किं गज्जहि ख़ल मेह ॥ ४ ॥ अर्थः- अपभ्रंश भाषा में 'किं' सर्वनाम स्थान पर मूल अङ्ग रूप से 'काई' और 'कवण' ऐसे अंग रूपों की आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है। पक्षान्तर में 'किं' अंग रूप का सद्भाव भी होता है। 'काई' के विभक्ति वाचक रूपों का निर्माण 'बुद्धि' आदि अथवा 'इसी' आदि इकारान्त शब्दों के समान जानना चाहिये। कुछ उदाहरण इस प्रकार है:- (१) किम्-काई - क्यों अथवा किस कारण से। (२) का= कवण = कैसी ? (३) केन=कवणेण किस कारण से। (४) किम्-किं=क्यों; इत्यादि । । वृत्ति में दी गई गाथाओं का अनुवाद क्रम से इस प्रकार है: संस्कृत : यदि न स आयाति, दूति ! गृहं किं अधो मुखं तव । । वचनं यः खंडयति तव, सखिके ! सप्रियो भवति न मम ॥ १ ॥ हिन्दी:- नायिका अपनी दूती से पूछती है कि हे दूति: यदि वह (नायक) मेरे घर पर नहीं आता है, तो (तू) अपने मुख को नीचा क्यों करती है)? हे सखि ! जो तेरे वचनों को नहीं मानता है अथवा तेरे वचनों का उल्लंघन करता है; वह मेरा प्रियतम नहीं हो सकता है । । १ ॥ संस्कृत : Jain Education International स्फोटयतः यौ हृदयं आत्मीयं, तयोः परकीया का घृणा ? रक्षत लोकाः आत्मानं बालाया; जातौ विषमौ स्तनौ ॥ २॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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