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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 333 अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'अदस्' सर्वनाम में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर तथा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की संयोजना होने पर मूल शब्द 'अदम' और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर दोनों ही विभक्तियों में 'ओइ पद रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- अमी-ओइ-वे (अथवा ये) और अमून् ओइ-उनको (अथवा इनको)।। नपुंसकलिंग वाचक उदाहरण यों हैं:- (१) अमूनि वर्तन्ते ओइ वट्टन्ते-वे होते हैं अथवा बरतते है। (२) अमूनि पृच्छ ओइ पुच्छ उनको पूछो।। (३) घर जोइ-गृहाणि अमूनि-वे घर; इत्यादि।। गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : यदि पृच्छथ महान्ति गृहाणि, तद् महान्ति गृहाणि अमूनि।। विह्वलित-जनाभ्युद्धरणं कान्तं कुटीरके पश्य।।१।। हिन्दी:- यदि तुम बड़े घरों के सम्बन्ध में पूछना चाहते हो तो बड़े घर वे है।। दुःख से व्याकुल हुए पुरूषों का उद्धार करने वाले (मेरे) प्रियतम को कुटीर में (झोपड़ें में) देखो।।१।।४-३६४।। इदम आयः।।४-३६५।। अपभ्रंशे इदम् शब्दस्य स्यादौ आय इत्यादेशो भवति।। आयई लोअहो लोअणइं जाई सरई न भन्ति।। अप्पिए दिटुइ मउलिअहिं पिए दिट्ठइ विहसन्ति।।१।। सोसउ म सोसउ च्चिअ उअही वडवानलस्स किं तेण।। जं जलइ जले जलणो आएण वि किं न पज्जत्त।। २।। आयहो दव-कलेवरहों जं वाहिउ तं सारू।। जइ उट्ठब्भइ तो कुहइ अह डज्झइ तो छारू।। ३।। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'इदम् सर्वनाम के स्थान पर विभक्ति बोधक प्रत्यय 'सि, जस्' आदि की संयोजना होने पर 'आय' अङ्ग रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) आयई-इमानि-ये। (२) आएण=एतेन इससे। (३) आयहो=अस्य-इसका; इत्यादि।। गाथाओं का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद क्रम से यों है:संस्कृत : इमानि लोकस्य लोचनानि जाति स्मरन्ति, न भ्रान्तिः।। अप्रिये दृष्टे मुकुलन्ति, प्रिये दृष्टे विकसन्ति।।१।। हिन्दी:-इसमें संदेह नहीं है कि जनता की ये आँखें अपने पूर्व जन्मों का स्मरण करती है। जब इन्हें अप्रिय (बातें) दिखलाई पड़ती हैं तब ये बंद हो जाती है और जब इन्हें प्रिय (बातें) दिखलाई पड़ती है, तब ये खिल उठती है अथवा ये खुल जाती हैं।।१।। संस्कृत : शुष्यतु मा शुष्यतु एव (=वा) उदधिः वडवानलस्य किं तेन।। __ यद् ज्वलति जले, ज्वलनः एतेनापि किं न पर्याप्तम्।। २।। हिन्दी:-समुद्र परिपूर्ण रूप से सूखे अथवा नहीं सूखे, इससे वडवानल नामक समुद्री अग्नि को क्या (तात्पर्य) है? क्योंकि यदि वह वड़वानल नामक प्रचंड अग्नि जल में जलती रहती है तो क्या इतना ही पर्याप्त नहीं है? अर्थात् जल में अग्नि का जलते रहना ही क्या विशिष्ट शक्ति-शीलता का द्योतक नही है?।। २।। संस्कृत : अस्य दग्धकलेवरस्य यद् वाहितं (=लब्धम्) तत्सारम्।। यदि आच्छाद्यते तत्कुथ्यति यदि दह्यते तत्क्षारः।। ३।। इस नश्वर (और निकम्मे) शरीर से जो कुछ भी (पर-सेवा आदि रूप) कार्य की प्राप्ति कर ली जाय तो वही (बात) सार रूप होगी; क्योंकि (मृत्यु प्राप्त होने पर) यदि इसको ढांक कर रखा जाता है तो यह सड़ जाता है और यदि इसको जला दिया जाता है तो केवल राख ही प्राप्त होती है।।४-३६५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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