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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 243 क्यों? प्रश्न उठाकर आगे 'पसरइ क्रिया पद द्वारा यह समाधान किया गया है कि 'गन्ध' कर्ता के साथ 'पसर' क्रिया का प्रयोग होगा। जैसे:- मालती-गन्धः प्रसरति मालइ गन्धो पसरइ-मालती-लता का गन्ध फैलता है। यों 'महमह' धातु-रूप की विशेष स्थिति को समझना चाहिये ।।४-७८।। निस्सरेीहर-नील-धाड-वरहाडाः ॥४-७९॥ निस्सरतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति।। णीहरइ। नीलइ। धाडर। वरहाडइ। नीसरइ॥ __ अर्थः- 'बाहर निकलना' अर्थक संस्कृत-धातु 'निस्+सृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से चार धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है जो कि क्रम से इस प्रकार है:- (१) णीहर (२) नील (३) धाड और (४) वरहाड। वैकल्पिक पक्ष होने से 'निस्+सृ' के स्थान पर 'नीसर' धातु की भी प्राप्ति होगी। पाँचों के उदाहरण इस प्रकार हैं:- निःसरति (१) णीहरइ, (२) नीलइ, (३) धाडइ, (४) वरहाडइ, और (५) नीसरइ-वह बाहिर निकलता है ।। ४-७९।। जाग्रेजग्गः ॥४-८०।। जागर्तेर्जग्ग इत्यादेशो वा भवति।। जग्गइ। पक्षे जागरइ।। अर्थः- 'जागना अथवा सचेत-सावधान होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'जागृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'जग्ग' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'जागृ' के स्थान पर 'जागर' धातु-की भी प्राप्ति होगी। दोनों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- जागर्ति-जग्गइ अथवा जागरइ-वह जागता है- वह निद्रा त्यागता है अथवा वह सावधान सचेत होता है ॥४-८०।। व्याप्रेराअड्डः ॥४-८१।। व्याप्रियतेराअड्ड इत्यादेशो वा भवति।। आअड्डेइ। वावरेइ। अर्थः- 'व्याप्त होना, काम लगना' अर्थक संस्कृत धातु 'व्या+पृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से आअड्ड' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'व्या+पृ' के स्थान पर 'वावर' धातु की भी प्राप्ति होगी। जैसेव्याप्रियते आअड्डेइ अथवा वावरेइ-वह काम में लगता है ।।४-८१।।। संवृगेः साहर-साहट्टौ ॥४-८२।। संवृणोतेः साहर साहट्ट इत्यादेशौ वा भवतः।। साहरइ। साहट्टइ संवरइ। अर्थः- 'संवरण करना, समेटना' अर्थक संस्कृत धातु 'सं+वृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से दो धातु 'साहर और साहट्ट' की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'सं+वृ' के स्थान पर 'संवर' धातु की भी प्राप्ति होगी। तीनों धातुओं के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- संवृणोति=(१) साहरइ, (२) साहट्टइ और (३)संवरइ-वह संवरण करता है अथवा वह समेटता है ।। ४-८२।।। आट: सन्नामः ।।४-८३॥ आद्रियतेः सन्नाम इत्यादेशो वा भवति।। सन्नामइ। आदरइ।। अर्थः- 'आदर करना-सम्मान करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'आ+द' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'सन्नाम' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'आ+द' के स्थान पर 'आदर' धातु की भी प्राप्ति होगी। जैसे:-आद्रियते सन्नामइ अथवा आदरइ-वह आदर करता है अथवा वह सम्मान करता है- सम्मान करता है ।। ४-८३।। प्रहगेः सारः ॥४-८४॥ प्रहरतेः सार इत्यादेशो वा भवति।। सारइ। पहरइ।। अर्थः- 'प्रहार करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्र-ह' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'सार' धातु की आदेश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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